क्या यही प्यार हैं


कितने बेवकूफ थे हम बिल्कुल सिरफिरों की तरह हर छोटी सी छोटी बेवक़ूफ़ता में खुद की खुशी को ढूंढा करते।मस्ती,रोमांस,हमारी किताबों के पन्ने जैसा था बिल्कुल सिरफिरा। रात रात भर ऑनलाइन चैटिंग करना तो कभी लूडो खेलना। कभी कभी ऐसा लगता कि अगर एक पल दूर हुए तो क्या होगा। लेकिन वक़्त की सुई अपने रफ़्तार में चल रही थी,हमारी खुशियों को संजोए। आज सोचती हूँ तो लगता है कि कैसा पागलपन सवार था। हम दोनों पर। प्रवीण का हर छोटी छोटी बातों पर छेड़छाड़ करना, फिर मुझे मनाना यही सब तो थी हमारी जिंदगी। जिसके लिए हम हर रोज कॉलेज के  छत से एक दूसरे को इज़हार करते।

कॉलेज की छत हमारे प्यार के लफ्ज़ में पहाड़ो की वो ऊँची चोटी हुआ करती जहाँ से पूरी दुनिया हमारे इज़हार को सौप रहे होते। रोज रोज का मुझे मस्ती में लेकर घूमना यही सब तो था हमारी दुनिया।बिल्कुल सपनो जैसा। कब आँखों को भिंगो ने पापा आ जाएं पता ना लगता। पापा हर बार हर बार यही तो कहा करते,प्रवीण हमारे लेवल का लड़का नही है सुमेधा तुम कुछ तो इज्जत का ख्याल रखों। मैं हर बार ,बार बार उनसे तुनक कर उलझ पड़ती। मैं आपसे ज्यादा समझती हूं उसे। आप तो बस एक बार मिल क्या लिए वो दो मिनट बस उतने में समझ गए। पापा हद भी होती है। मैं आपकी इकलौती बेटी हूं,क्या आप मेरे इस खुशी को भी कबूल नही कर सकते,आज माँ होती तो वो झट मान जाती। क्या प्यार जाति धर्म यही सब है ,हमारी दुनिया की डोर। जिसे तोड़ने वाले हर तरीके से लगे है। जाति धर्म क्या मायने रखता है। मायने है तो सिर्फ़ प्यार,जो आपकी बेटी को खुश रखे,प्रवीण अच्छा लड़का है पापा।

मैंने पूरे हिम्मती जोश में कहा था पापा से। मगर पापा की उठी तनी मूंछे ना कि ओर इंक़त करती हुई बोली-देखों सुमेधा हम तुम्हारी पढ़ाई तुम्हारे मन मुताबिक करवा रहे। मगर अब शादी बिल्कुल नही। अब फिर कोई आफ़त सर पर नही मोलना पापा इतना बोल कमरे से बाहर निकल पड़े। मैं शान्त हो बिस्तर से सिर टिका बैठ गयी। क्या करूँ जिससे पापा मान जाए। कौन सा जादू करू जो पापा के नजरो में भी प्रवीण अच्छा लगने लगे। समझ नही आता कैसा ये सफ़र है जहाँ मैं अकेली लग रही हूँ। और मेरी जिंदगी ...प्रवीण ! 

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