ससुराल के व्यंग्यबाण | कहानी -6


आज रविवार के दिन सभी अपने अपने घरों में  साफ सफाई करते रहते है,मौहल्ले में हर घर अपने घर मे व्यस्त था।लेकिन तकरीबन दस बजे सामने वाले घर से चीख़ने-चिल्लाने की आवाज आने लगी। सभी लोग अपने अपने गेट और बारजे पर आ गए। ये जानने की तहकीकात करने लगे कि आखिर पंडित जी के घर हुआ क्या जो इतना कोहराम मचा है।
 अचानक से पण्डित जी चिल्लाते हुए माया भाभी का हाथ पकड़ कर घसीटते हुए सड़क पे लाने लगे और दूसरे हाथ मे सूटकेस।आखिर लॉक डाउन में माया भाभी को इस तरह क्यों। विमल भाईसाहब तो स्वभाव के बड़े ही नरम दिली है तो आज क्या हो गया अचानक ये सोचकर मोहल्ले की सारी औरतें पंडित जी के घर के पास एक जुट हो गयी और माया भाभी से पूछने लगी क्या हो गया सुबह-सुबह इस तरह क्यों। तब विमल भाईसाहब बड़े गुस्से में बोले छ साल शादी को होने वाला है अभी हुआ भी नही है और ये बार बार माँ पर इल्जाम लगा रही। कहती है माँ को घर से निकाल दो। मगर बात क्या है माया भाभी ऐसा क्या हो गया मोहल्ले की औरतों ने पूछा। मुझसे नही इन्ही से पूछिए इनकी पाख पवित्र सावित्री जैसी माँ ने क्या किया है, माया ने गुस्से में जवाब दिया। 

 भाईसाहब आप ही बताइए क्या बात हो गयी जो घर से निकालने की नौबत आ गयी। अरे आपसे क्या बताए रचना भाभी माया बार बार माँ पर इल्जाम लगाए जा रही ,कि इन्होंने ही मेरे ना रहने पर गहने बेचे है इतना कहते कहते विमल भाईसाहब फूट फूट कर रो पड़े।यह सुन सब चकित रह गए। मगर मैं बार बार माया को समझाने में जुटा हुआ हूं कि ये असत्य है। तुम इस तरह माँ पर इल्जाम नही लगा सकती। हो सकता है तुमने गहने कहि और रखे हो। लेकिन इस कलझिन को सुनना कहा। बार बार बोल रहा अपनी हद में रहो ,लेकिन नही चुप होने का नाम ही नही ले रही। 

माया भाभी फिर से एक बार जोर-जोर से चीख-चीख कर कहने लगी चोर है तुम्हारी माँ,हर पल उसकी आंखें मेरे जेवरों पर ही थे। मुझसे क्या अपनी माँ से पूछो उन्होंने ही मेरे जेवर बेच दिए। एक ही बात सुनते सुनते विमल भाई साहब ने आखिरकार पूरे मोहल्ले के आगे माया भाभी को एक हाथ गाल पर जड़ ही दिया। सबके सामने इस तरह से माया भाभी को तमाचा सहन नहीं हुआ। वह वाक़ई में घर छोड़कर जाने लगी, और जाने से पहले विमल भाईसाहब से एक सवाल पूछा आपको अपनी मां पर इतना विश्वास है और अपनी पत्नी पर जरको नाही? इतना सुनते ही विमल भाईसाहब जमीन पर ही सर पकड़कर बैठ गए और अपनी  पत्नी को समझाने की कोशिश में लग गए कि ये वो माँ है जिसने मुझे 4साल की उम्र से ही बाप के गुजर जाने के बाद तमाम संकट को झेलते हुए कभी ऐसा कार्य नही की तो आज यह कैसे मान लू। मोहल्ले के घरों मे झाडू पोछा बर्तन साफ कर के जो कमा पाती थी उससे ही एक वक्त का खाना हमारे घर आता। मां थाली में मुझे परोस देती और खाली डिब्बे को ढककर सदैव रख देती ,कहती मेरी रोटियां इस डिब्बे में है बेटा तू खा ले मैं थोड़ा आराम कर के खाऊँगी।मगर जब मुझे एक दिन यह अहसास हुआ कि मेरी माँ तो बिन खाएं ही सो जाती है तो मैंने भी अपनी थाली में खाना छोड़ना शुरू कर दिया। यह कह कर की मेरा पेट तन गया। माँ खाने की कीमत को बखूबी समझती थी वे उसी झूठे खाने को खा कर रह जाती। तुम कहती हो मेरी माँ लालची है। उसने मुझे अत्यंत पीड़ा के साथ पाला है जो आज मैं दो रोटी कमाने लायक हो गया हूं।वरना कब का हमारा भी अंत हो चुका होता। इस जवाब को सुनकर पूरा मोहल्ला सन रह गया और घर के भीतर दरवाजे के पीछे खड़ी मां सुसक सुसक कर रोने लगी। मेरे मित्रो यह कोई बनावटी कहानी नही अपितु हमारे घर के बाजू वाले घर का दृश्य है। जिसे देख मन अत्यंत पीड़ा से भर गया। वाकई ससुराल में जरूरी नही की सास ही गलत हो कभी कभी बहुए भी गलत हो सकती हैं। 

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