नव दिन माई के दसम दिन विदाई के - पार्ट 6

चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहन ।


कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी ॥



नमस्कार ,


आप सभी को और आपके पूरे परिवार को एक बार फिर मेरी तरफ से नवरात्र की ढेरों शुभकामनाएं! आज की यात्रा में मैं घुमक्कड़ लड़कीं आपको लेकर चल रही हूं ,मिनी बंगाल के सिंधिया घाट।


सही सुना आपने आज की यात्रा हम निकल पड़े है देवी दुर्गा के  छठे स्वरूप माँ कात्यायनी  के दर्शन करने।जैसा कि हमने आपको पहले ही बताया कि काशी में अपने नव स्वरूप में स्वयंभू यहाँ विराज्यमान है देवी दुर्गा।


तो हम निकल पड़े है ...कैंट से मैदागिन ओर मैदागिन से पदयात्रा, अरे घबराइए मत। आप थकेंगे बिल्कुल भी नही...बस किसी से भी पूछे माँ संकठा मन्दिर का राश्ता,बस थोड़ा पदयात्रा करके आप यहाँ तक पहुँच जाए।वहाँ पहुँच अब आप किसी से भी पूछे कि आत्मविशेश्वर महादेव की मन्दिर कहा  है और फिर क्या बस आप पहुँच जाएंगे माँ के दरबार में।


वैसे तो घाट वाक के शौकीन हो आप मेरी तरह तो जरूर घाट से आए ,थोड़ा फैट भी कम हो जाएगा और टहलना भी। खैर फॉलो मत करिएगा,अगर आप नव दिन का व्रत हो। दशशस्वमेध से उतर गूगल मैप खोले ओर सिंधिया घाट के लिए सिग्नल लगाए आप खुद ब खुद सिंधिया घाट पहुँच जाएंगे और वहाँ से ऊपर चढ़ते ही किसी से भी पूछे आप माता का दरबार आप सीधे माँ के धाम मे प्रवेश कर जाएंगे।

यहाँ पहुँच कुछ अलग ही नजारा देखने को मिला। माँ कात्यायनी के दर्शन को लम्बी लम्बी कतारों में शामिल थी.... कुवारी कन्याय। जिनके हाथों में था एक दही का पुरवा उस पर हल्दी की गांठ। अंदर पहुँच सब देख थोड़ा आश्चर्य हुआ गर्भगृह में हर कोई माँ के चरणों पर हल्दी व दही से उनके चरणों को दबा रहा था। वहाँ पूछने पर पता चला कि ,

देवी कात्यायनी कुवारी कन्या को मनचाहा वर की प्राप्ति करवाती हैं। इसीलिए कन्याय माँ को हल्दी की गांठ दही चढ़ा प्रसन्न करती हैं।

कन्याओं के शीघ्र विवाह के लिए देवी कात्यायनी की पूजा अद्भुत मानी जाती है। वहा खड़ी आरती ने बताया कि मनचाहे विवाह और प्रेम विवाह के लिए भी इनकी उपासना की जाती है। मन्दिर के महंत बताते है कि शुक्र और बृहस्पति दोनों तेजस्वी ग्रह हैं,इसलिए माता का तेज भी अद्भुत है।इसी मन्दिर प्रांगण में ही मंगलेश्वर महादेव का लिंग व बुधेश्वर महादेव का लिंग स्थापित है। कहा जाता है कि  माता का सम्बन्ध कृष्ण और उनकी गोपिकाओं से रहा है ,और ये ब्रज मंडल की अधिष्ठात्री देवी भी रही हैं।


                         क्या कहता है पुराण ?

कात्यायनी भले ही पार्वती का दूसरा नाम क्यों न हो।  लेकिन पुराण में देवी के 108 स्वरूप के 108 नाम की भी चर्चा की गई हैं।


स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि वे परमेश्वर के नैसर्गिक क्रोध से उत्पन्न हुई थीं , जिन्होंने देवी पार्वती द्वारा दी गई सिंह पर आरूढ़ होकर महिषासुर का वध किया। वे शक्ति की आदि रूपा है, जिसका उल्लेख पाणिनि पर पतंजलि के महाभाष्य में वर्णित किया गया। 


माँ का नाम कात्यायनी कैसे पड़ा इसकी भी एक कथा है, कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं कात्य के गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे। इन्होंने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी। उनकी इच्छा थी माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें। माँ भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली।


कुछ समय पश्चात जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बढ़ गया तब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की। इसी कारण से यह कात्यायनी कहलाईं।


माँ कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पतिरूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा कालिन्दी-यमुना के तट पर की थी। ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।


माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत चमकीला व अलौकिक शक्ति है।माँ की चार भुजाएँ हैं। माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपरवाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वरमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपरवाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन भी सिंह है।

परम्परागत रूप से देवी दुर्गा की तरह वे लाल रंग से जुड़ी हुई सोलह शृंगार से सुशोभित,हाथों में लाल चूड़ियां सजाए चेहरे पर तेज व चमक जो मन को अति मोह लेने वाला है।


माँ कात्यायनी की भक्ति और उपासना करने से मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है।


वही काशी खण्ड अध्याय 82 के अनुसार, एक बार अमित्रजीत नामक धर्मप्राण राजा राज्य करता था। वह भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था और उसने अपने राज्य में एक राजाज्ञा जारी कर दिया। इस राज्य के समस्त नागरिक भगवान विष्णु के भक्त हो जाए। एक दिन नारद ऋषि उस राजा के महल पधार गए। राजा ने ऋषि का उचित आदर सत्कार सहित स्वागत किया।


ऋषि नारद के निर्देशानुसार राजा अमित्रजीत ने दुष्टों के पंजो से मलयगंधनी नामक एक कन्या की रक्षा की। कालांतर में राजा ने उससे विवाह कर लिया। वे दोनों काशी आये। यही पे उन्हें एक सुंदर पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई।  वह बालक जन्मोपरांत ही 13वर्षीय किशोर हो गया। क्योंकि वह प्रतिकूल ग्रहगोचर की दशा में पैदा हुआ। इसलिए राजा के मंत्रियों ने कहा कि इस बालक का त्याग करना होगा वरना राजा की मृत्यु निश्चित है।


यह सुन रानी अत्यंत दुखी हो बालक को पंच मुद्रा महापीठ भेज दिया। जहाँ विकटा देवी ने तमाम योगनियों को बुला बालक को मातृका देवी के पास भेज दिया। योगनियों ने वैसा ही किया परन्तु मातृका देवी ने वापस पंच मुद्रा महापीठ भेज दिया। वहाँ जा बालक से माँ का ध्यान करवाया गया। इस प्रकार बालक स्वर्गलोक की लघुयात्रा कर वापस आ गया।


आपको एक बार फिर बता दू कि विकटा देवी कोई और नही स्वयंभू माँ कात्यायनी ही है। इनका विग्रह आत्मविशेश्वर महादेव मंदिर के गर्भगृह में कोने में है।


तो आज की यात्रा आपको कैसी लगी जरूर बताएं साथ ही साथ माँ के दर्शन को जरूर आए।



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