नव दिन माई के दसम दिन विदाई के - पार्ट 4

https://youtu.be/PSwZaPK-oqI

            सुरासंपूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
     दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ॥




नमस्कार ,
आप सभी को और आपके पूरे परिवार को एक बार फिर मेरी तरफ से नवरात्र की ढेरों शुभकामनाएं! आज की यात्रा में मैं घुमक्कड़ लड़कीं आपको लेकर चल रही हूं ,मिनी बंगाल के दुर्गा कुण्ड। 

सही सुना आपने आज की यात्रा हम निकल पड़े है देवी दुर्गा के  चौथे स्वरूप माँ कुष्मांडा के दर्शन को।जैसा कि हमने आपको पहले ही बताया कि काशी में अपने नव स्वरूप में स्वयंभू यहाँ विराज्यमान है देवी दुर्गा।

माँ कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। माँ कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं। यदि मनुष्य सच्चे हृदय से इनका शरणागत बन जाए तो फिर उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो सकती है।
विधि-विधान से माँ के भक्ति-मार्ग पर कुछ ही कदम आगे बढ़ने पर भक्त साधक को उनकी कृपा का सूक्ष्म अनुभव होने लगता है।

तो आइए हम चलते है माँ कुष्मांडा के दर्शन को दुर्गाकुण्ड....दुर्गा कुण्ड के लिए आपको कहि से भी बड़ी सरलता से ऑटो रिक्शा मिल जाएगा। बस आपको उनसे बोलना है दुर्गा कुण्ड। तो मैं निकल पड़ी हु कैंट से दुर्गा कुण्ड की ओर जो कि बी.एच.यू.के मार्ग पर पड़ता हैं। नवरात्र में देवी दुर्गा यानी माँ कुष्मांडा के नव दिन दर्शन करने की महिमाहै। कहते है कि माँ की उपासना मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पार उतारने के लिए सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है।माँ कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधियों-व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाने वाली है। अतः अपनी लौकिक, पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिए।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।



हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कूष्माण्डा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें।

अपनी मंद, हल्की हँसी द्वारा अंड अर्थात ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के रूप में पूजा जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा को कुम्हड़ कहते हैं। बलियों में कुम्हड़े की बलि इन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इस कारण से भी माँ कूष्माण्डा कहलाती हैं।

जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तब इन्हीं देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी। काशी खण्ड में वर्णित है कि ये ही सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदिशक्ति हैं। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। वहाँ निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। इनके शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान ही दैदीप्यमान हैं।

इनके तेज और प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है। माँ की आठ भुजाएँ हैं। अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है।



https://youtu.be/PSwZaPK-oqI

काशी खण्ड के अध्याय 71 में वर्णित है कि ऋषि अगस्त्य ने भगवान कार्तिकेय से पूछा कि माता का नाम दुर्गा कैसे पड़ा।  तब भगवान कार्तिकेय ने बताया कि एक बार जब दुर्गासुर नामक एक राक्षस कई वर्ष तक घोर तपस्या करके एक ऐसी शक्तिप्राप्त कर लिया जिसकी वजह से उसे कोई उसे मार नही सकता था। इस शक्ति से मदांध होकर वह तमाम धर्मप्राण लोगो को सताने लगा। सभी लोग उसके अत्याचारों से त्राहि त्राहि करने लगे। उसने स्वर्ग व भूलोक में कब्जा कर लिया।

उसने समस्त गुरुकुल, यज्ञशाला नष्ट कर डाले। धार्मिक गुरु व ऋषियों को बंदी बना लिया। नदियों की दिशा बदल गयी। भगवान शिव इस बात से परिचित थे कि दुर्गासुर को कोई मनुष्य नही मार सकता। उन्होंने देवी को इस ओर संकेत किया।

देवी ने अपनी भेदिया कालरात्रि देवी व अन्य देवियों के साथ दुर्गासुर को चेतावनी देने के लिए भेजा। उन्होंने समझाया कि तुम सभी बंदियों को छोड़ दो वरना तुम्हारा संहार हो जाएगा।

घमंडी दुर्गासुर ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि कालरात्रि को बंदी बना कर बंदी गृह में डाल दे। जब सैनिक देवी की ओर बढ़ने लगे तब देवी ने अपने मुख से आग के गोले की बौछार करने लगी। उसके असंख्य सैनिक मारे गए,जो देख दुर्गासुर अत्यंत क्रोधित हो उठा। उसने समसत सैनिकों को उनके पीछे भेजा। तब कालरात्रि सीधे आकाश मार्ग से होते हुए विंध्याचल पर्वत पहुँची।

उसी उपरांत वहाँ दुर्गासुर पहुँच गया। तब देवी व दुर्गासुर में भयंकर युद्ध छिड़ा। तब देवी ने अपनी समस्त शक्ति के साथ संहारक रूप धारण किया। काशी खण्ड में इसका वृस्तित वर्णन लिखाहै कि , माता ने दुर्गासुर का वध किया। जिसे समस्त बाधाएं दूर हुई।

कहा जाता है कि दुर्गाकुण्ड में स्नान कर इनकी पूजा उपासन से मनुष्य के समस्त पाप से मुक्त हो जाएंगे। नवरात्रि के चौथे दिन चण्डिका पाठ का खास महत्व है।

 
मन्दिर के महंत बताते है कि पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करने से भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा आरोग्य प्राप्त होता है। ये देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है। 

 
देवी दुर्गा को सप्तशती का पाठ और गुड़हल फूल अत्यंत प्रिय हैं। कहते है जो भी इस दिन गुड़हल का फूल और रोरी अर्पित करता है देवी कुष्मांडा उसका जीवन खुशियों से भर देती हैं। तो कैसे लगी हमारी आज की यात्रा हमे जरूर बताएं साथ ही माता दुर्गा। व कुष्मांडा के दर्शन करने जरूर आए।


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