ससुराल के व्यंग्यबाण | कहानी -4

अजी सुनते है आज सुमित्रा भाभी बता रही थी कि उन्होंने एक छोटा दुकान खोल लिया है,चाय-नाश्ते का दिनभर का खर्च तो निकल ही जाता है उनलोगों का। साथ ही इनकम भी हो रहा अच्छा खासा। क्यों ना हम भी एक छोटी दुकान खोल ले,वैसे भी उनके दुकान का पूरा भार उनकी बहू ही सम्भाल रही हैं। तो !ससुरजी ने सासूमाँ को टोकते हुए पूछा तो क्या भाग्यवान। सासूमाँ कुछ देर रुक कर बोली ,तो मैं सोच रही हूं हमारी बहु कौन सा किसी से कम है?क्या लाजवाब चटख खाना नाश्ता बनाती हैं, जो एक बार खाले तो जीभ न रुके उसके। मैंने तो तय कर लिया है हम भी एक दुकान डाल ही देते हैं। इसी बहाने घर की स्थिति सुधर जाएगी और घर पर ही इनकम भी हो जाएगी। भग्यवान तुम्हे हो क्या गया है, अरे बहु है वो बावर्ची नही जो हजार लोगों के लिए नाश्ता बनाएगी ससुरजी सासूमाँ को समझाते हुए बोले। मैं किचन में खड़ी खड़ी उन दोनों लोगो की बात सुन रही थी। तभी सासूमाँ ने बाहर से आवाज लगाया अरे बहु- जरा सुनना तो। सबकुछ सुनकर भी मैं अनसुना कर उनके सामने खड़ी हो गयी जी माँ। बहु हमने ये तय किया है कि जब तक रवि की हालात नही सुधरते तब तक क्यों ना हम एक छोटा सी दुकान चलाए। इससे घर बैठे इनकम भी हो जाएगी और दवा का खर्च भी। बस अब तुम बताओ तुम क्या क्या बनाओगी सासूमाँ खुश होकर बोल दी। मैं बूत हो उन्हें सुने जा रही थी। तभी ससुरजी ने सासूमाँ को टोकते हुए कहा तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है,अरे घर की बहु को दुकान में लगा दोगी। क्या हो गया है तुम्हे भग्यवान। आप बस चुप रहिए, आपको क्या पता घर की स्थिति कैसे कट रही।वैसे भी बहु को तो बुरा नही लगा आप क्यों बोले जा रहे। बहु क्या तुम तैयार हो सासूमाँ ने मेरा हाथ थामते हुए कहा, मेरे पास ना तो उन्हें मना करने का मुंह था ना ही हाँ कहने की हिम्मत।

मगर घर की हालात,पति का पैर से लाचार होना मेरे जीवन की सबसे बड़ी लाचारी थी। मैंने भी हाँ में सर हिला दिया। सासूमाँ खुश हो गयी और अगले दिन से ही गैराज में ही मेज लगा कर बढ़िया से बैठ गयी। पहले तो कुछ दिन तक सब मौहल्ले के लोग चाय पीने आ जाते। दिनभर चाय नाश्ता ,ऊपर से घर के काम दिनपर दिन मेरे जीवन के लिए काल बनते जा रहे थे। मगर दुकान से ज्यादा तो नही मगर ठीक ठाक पैसे आ ही जा रहे थे। सासूमाँ की फरमाइश और खुशी दिन पर दिन बढ़ रही थी। उन्हें इस बात का थोड़ा भी अहसास नही था कि मैं भी थक जाती हूं। मैंने एक दिन हिम्मत जुटा माँ से कह ही दिया। माँ हम एक काम वाली रख ले। उन्होंने ठुनकते हुए कहा आए-हाए देखो तो चंद पैसे आना शुरू हुए नही की महारानी बनने की ख्वाहिश शुरू हो गयी। कम से कम बोलते वक्त ये तो सोच लिया होता कि रवि के बीमारी का खर्च कहा से निकलेगा। नौकरानी चाहिए, सासूमाँ बड़बड़ाते हुए अपने कमरे में चली गयी।

इधर दिन पर दिन मेरा गिरता स्वस्थ मुझे भीतर भीतर ही खोखला कर रहा था। समझ नहीं आता था कि कब तक ये सब करना होगा। उन्ही बीच हमारी ननद घर आ गयी एक माह ठहरने के वास्ते। उनकी और उनके बच्चो की फरमाइश, नंदोईजी की फरमाइश ,दुकान पे लोगो की फरमाइश सबकुछ बिल्कुल भार सा होता जा रहा था। अब सहने की शक्ति ना थी, मैंने हिम्मत करते हुए कहा- सासूमाँ अगर जब तक ननद ननदोई है तब तक कुछ दिन के लिए हम लोग दुकान ना लगाए। अरे ऐसे कैसे उन्होंने आंखों से घूरते हुए कहा। माँ मैं थक जाती हूं ,नही हो पा रहा मुझसे मैंने भी हिम्मत के साथ जवाब दिया। घर के काम,खाना पीना,दुकान।बहुत भारीपन हो जाता है या तो एक बाई रख लेते है। कम से कम वो घर का कुछ काम हल कर देगी तो मैं दुकान अच्छा सम्भाल लुंगी। देखो बहु बाई तो इस घर नही आएगी। रही बात मेरी बेटी दामाद के आने से तुम थक रही हो तो जब तुम घर ना सम्भाल पा रही तो दुकान क्या खाक संभालोगी। तुम्हारा ऐसा ही चलता रहा तो रवि के इलाज के लिए मेरे पास पैसे नही है। उनकी इतनी बात सुन मेरा भी पारा आज हाई हो गया,मैंने भी तपाक से बोला- इतनी मेहनत ,दिन रात एक कर के मैं ये सब उनके लिए ही कर रही हूं। मुझे लगता था आपको सच मुच् घर के स्थिति की चिंता है मगर आप तो लालची निकली। अरे मेरे पति तो बाद में उससे पहले आपके बेटे है जिसे आपने अपने ही कोख में 9माह सींचा है और आप उसके ही पैर को खड़े होने पर इस तरह की बाते कर रही। लानत है ऐसी माँ पर जो अपने बेटे के लिए ही नही सोच रही तो वो बहु को क्या खाक समझेगी। देख रही हो ना पुष्पा इसकी जुबान कैसे कैची की तरह चल रही सासूमाँ ने ननद जी से कहा। इसके माँ बाप ने पता नही क्या संस्कार दिया है। मेरे माँ ने जो संस्कार दिए थे उसी से इतने दिन तक खुद पर हो रहे अत्याचार को सह रही थी ,नही तो कबका आवाज उठा चुकी होती। इतना सुनते ही सासूमाँ का चेहरा फीका पड़ गया। 

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