कसौटी आध्या की पार्ट-4

    

अब आगे...मैं बहुत खुश थी। मनन भी। हम समझ नही पा रहे थे कि क्या बात करे,क्या नही। मनन ने हाथ थामते हुए कहा कही खाने पर चले अगर तुम्हें दिक़्क़त न हो। मैंने भी सर हा में हिला दिया। अब वक़्त था मनन के साथ बाइक पर बैठने का,समझ नही आ रहा था कैसे बाइक पर बैठू मगर फिर बैठ गई। पहली बार जब मनन के कंधो पर हाथ रखी कुछ अजीब ही हलचल थी। सबकुछ अलग सा महसूस हो रहा था। मनन और मैं दोनों चुप थे,समझ नही आ रहा था कि क्या बात करें। जब भी बोलते एक साथ ही बोलते।वो पहली मुलाकात बहुत खास था हम दोनों के लिए ही।मगर आध्या का कम बोलना मनन को उसकी ओर खींचता चला जाता। मनन हर बार ,बार बार उसकी चुप्पियों को पढ़ने उसके बहुत नजदीक आ जाता। वक्त बीतता गया मनन और आध्या का प्यार किसी अमृत कलश जैसा बढ़ता जा रहा था। प्यार के इस कलश में आध्या और मनन का प्यार बून्द बून्द कर के बढ़ रहा था। दोनों का रोज रात को घण्टो बात करना। सुबह मिलना अक्सर लम्बा सफ़र तय करना उनकी आदत बनता जा रहा था। मनन अक्सर आध्या को सिनेमा दिखाने,कभी शॉपिंग करने,कभी खाने पर ले जाया करता। आध्या की हर खुशी का ख्याल रखना ही तो जैसे काम था मनन का। बिल्कुल तन्मयता वाला अथाह प्रेम। आध्या का गुनगुना कर मनन को मना लेना कहा मिलता है ऐसा प्यार जो एक गुनगुनाने से नाराजगी दूर हो जाए। सबकुछ प्यार में बढ़ता जा रहा था। मनन आध्या की चुप्पी को तोड़कर उसे अपनी दुनिया देने की होड़ में रात दिन लगा रहता।अक्सर उन दोनों की इस पर बेहस भी होती कि आध्या  तुम इतनी चुप क्यों रहती हो कोई बात। आध्या मुस्कुरा देती नही मनन। मैं ऐसी हु शायद। कभी कभी खिलखिलाती हूं, ये सुनते मनन ने आध्या को गले लगाते हुए बोला ओह्ह तो ये गुलाब की पंखुड़ी,मौसम भी है जो कभी खुश ,कभी गम ,कभी उदास,कभी रो कर बरस जाना। इतना सुनते ही आध्या मनन के गले लग कर बोली बहुत जल्दी समझ गए मुझे। मनन खुश था कि कुछ तो समझता है आध्या को वो। दिन बदलते गए तारीखें बढ़ती गयी साल आते गए और आध्या मनन का प्यार गहराता गया। दोनों एक दूसरे से दूरी एक पल नही चाहते। मनन का हर थोड़ी देर पर आध्या का हाल चाल रखना उसकी आदत हो गयी थी। आध्या भी घुलती जा रही थी मनन में जैसे उसके सिवा दुनिया मे कुछ नही। आध्या की दुनिया मनन था और मनन की दुनिया आध्या। प्यार के सागर में दोनों ने एक दूसरे से शादी करने के फैसले भी ले लिए। अब वक़्त था परिवार को मनाना। मगर कहा आसान होता है परिवार को मना पाना ऊपर से लव मैरिज में बिना उलझे कहा सुलझते है ये लोग। परिवार के खिंचा तान में कभी मनन को आध्या के परिवार वाले नीचा दिखाते तो कभी आध्या के परिवार वाले मनन को। बस नप रहे थे तो आध्या और मनन। मगर मनन फिर भी अपनी जिद्द पर अड़ा रहा,रिश्ते को सात साल होने को थे। आध्या घर के इस माहौल से वाकिफ हो चुकी थी अब मनन कभी उसका नही हो सकता न वो मनन की।

अब तो फोन पर बात करना भी बन्द ही हो गया था दोनो का लगभग। कभी छुपछुपाये आध्या को मनन फोन कर लेता कभी आध्या। दोनों के रिश्ते रिश्तेदारों के क्लिष्ठ में गुच्छे की तरह गुच्छ गए। धीरे धीरे रिश्ते बदलते गए मनन आध्या की जिंदगी शांत पहिए की गाड़ी पर निकल पड़े। जहाँ उनकी खुशियां ख़्वाब सब कुछ बहुत दूर बहुत दूर हो चुके थे। टूटकर बिखरते रिश्ते को आध्या कैद करके सिर्फ अपने पास समेट लेना चाहती थी। वो समझ चुकी थी मनन अब कभी उसका नही होगा मगर फिर भी उसे अपने सीने में उसे हमेशा के लिए कैद कर लेना चाहती थी। हर पल उसे खोने से डरने लगी थी। परिवार का रोज रोज का लड़ना झगड़ना बढ़ता ही जा रहा था। और एक दिन मनन ने निर्णय लिया कि वो दोनों ही भाग जाए। मगर आध्या ने मनन को समझाते हुए कहा नही मनन ऐसी खुशी का क्या मिलना जहाँ दो दिल के वजह से इतने लोग दुखी हो जाए। कभी ना कभी तो तुम अपने घर आओगे तो तुम अकेले हो घर के तुम्हारी माँ मान जाएंगी तुम्हे मगर मुझे कभी नही। उन्हें तो मुझे देखते ही चिढ़ मचने लगती है। मनन ने रुआँसे भाव से बोला आध्या मैं तुम्हारे साथ जीना चाहता हूँ।प्लीज मान जाओ।भाग चलो हम हमेशा साथ रहेंगे। नही मनन आध्या ने फिर टोकते हुए कहा तुम नही समझोगे मुझे मेंरा प्यार खुशी से चाहिए ना कि हजार लोग के मन मे क्लेश पैदा करके। मैं कभी खुश नही रह पाऊँगी। मैं दुआ पाना चाहती हूँ बदुआ नही। आध्या क्या बोलू तुम्हे ये लोग कभी नही मानने वाले मनन ने दबे आवाज में बोला। कुछ दिन ऐसा चलता रहा मनन आध्या की जिंदगी पहले से कई ज्यादा दुखी बीतने लगा। ना आध्या ठीक से रहती ना मनन। दोनों पिसते गए प्यार कि चाकरी में जिसे पीस रहे थे खुद के परिवार वाले। उन्हें वो चार लोगों की परवाह थी कि वो क्या सोचेंगे। मगर अपने बच्चो की खुशी का अंदाजा बिल्कुल भी नही। करते करते ये साल भी बीत गया।करते करते कैसे दो तीन साल और बीते पता ना लगा। आध्या मनन एक दूसरे से बहुत दूर हो गए।मनन की माँ ने मनन की शादी तय कर दी एक अच्छे रक़म वाले घर मे। रक़म भी क्यों ना मिले मनन सरकारी नौकरी में जो थे। मनन हर प्रयत्न से थक चुका था। हार कर उसने शादी के लिए हां कर ही दी।कुछ ही दिनों में मनन की शादी हो गयी।मनन का शांत रहना ही उसकी पत्नी दीक्षा के लिए कौतूहलता पैदा करता।किसी न किसी से हर पल वो आध्या को जानने की कोशिश करती और एक दिन उसने आध्या को फोन लगा बहुत कुछ सुना डाला जो शायद उसे नही बोलना चाहिए। आध्या तो कब का चुप हो चुकी थी अपना सबकुछ तो खो दी। प्यार दोस्त खुशी रिश्ते फिर दीक्षा का इस तरह बोलना आध्या को तकलीफ दे रहा था। वो चाह कर भी मनन से कुछ नही कह सकती थी। क्योंकि वो मनन को हमेशा खुश देखना चाहती थी। आध्या कि चुपी ने खुद को तब तोड़ा जब मिहिर का रिश्ता आया। आध्या मिहिर से सबकुछ कह देना चाहती थी। घर वालो के मना करने के बावजूद आध्या ने मिहिर से अपने और मनन के रिश्ते को साफ साफ कबूल लिया। जिससे मिहिर बहुत खुश हुए और उन्होंने शादी के लिए हां बोल दिया। लेकिन उन दस सालों में मनन आध्या सब तो बदल गया फिर ये दिल की कसौटी वही क्यों अटकी है सुई की तरह मनन पर! 

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