बाजारू किसे कहा ?

छोड़ो मुझें! मैंने कहा छोड़ो मुझें ,मुफ़्त में बदन न तोड़ूगी।चल हट! वरना और समय के लिए रक़म बढ़ा। क्या कहा तुमने; तुम आज ये कैसे बात कर रही हो जान, रमेश ने अंगड़ाई लेते हुए कहा।

जान गई तेल लेने ये तो अपना रोज का धन्धा है समझें साहब। रमेश आंखों को बड़ी भौहें सिकोड़ते ,पगला गयी हो क्या, तब से अनाब शनाब बके जा रही। राधा क्यों इतनी ग़ुस्सा,तुम्हे अंगूठी चाहिए न कल दिला दूंगा, मगर यू न इस तरह बोलो प्लीज तकलीफ हो रही।

क्यों तकलीफ हो रही रमेश बाबू ,राधा ने दुबारा झिटकते हुए बोला,जो सच है वो सच है जितना डिमांड उतना रोकड़। रोज का काम है ये मेरा,तू कोई नया नई सा।
रमेश ने राधा के गाल पर एक जड़ा। बस नही करना तुझसे प्यार थोड़ा करीब क्या आया कि बस रोकड़ पैसे धन्धा। बस करो ,नही छू रहा।

रमेश ,बड़ी मिर्ची लगी न सच सुनने में , जो मैं हूं वो काबुल नही। क्या हो तुम बोलो ,बोलो राधिका मैं तुम्हे अपनी राधा मानता हूँ और क्या हो तुम? .........राधिका ने सर दीवाल से टिका...दो मिनट बाद बोली, मैं एक बाजारू खिलौना हु,जिसकी माँ ने मुंबई के रेलवे प्लेटफॉर्म पर छोड़ ,ये कह कर चली गयी कि वंदना तू बेटी जो भी पहली ट्रेन आए तू चढ़ जाना मेरा इन्तेजार मत करना। मैं तुझसे अगले स्टेशन पर मिल लूँगी। उस समय मात्र नव साल की थी।

पहली ट्रेन आई,मुंबई लोकल माँ के कहे अनुसार चढ़ गयी। अगले स्टेशन के राह में बैठी रही। स्टेशन आते रहे लोग चढ़ते उतरते रहे। तभी एक लंबी औरत चढ़ी ओर मेरे बगल के सीट पर बैठ गए।
      कुछ देर के बाद उन्होंने पूछा ,तुमको कहा उतरना है ,मैंने जवाब दिया जहाँ माँ मिलेगी। स्टेशन आते रहे।माँ नही चढ़ी,उन्होंने उतरते हुए कहा मैं तुम्हारी माँ के पास पहुंचा दू। मेरे चेहरे पे मुश्कान आ गयी। बस एक हिम्मत के साथ उतर गयी ,माँ के पास जाने के लिए।

शायद वही से मेरी जिंदगी के सारे पल बदल गए। झिलमिलाते रोशनी, हर तरफ औरतों की भीड़। इतनी जगमगाती रोशनी मैंने पहले कभी न देखी। माँ यहाँ पर है चाची?  हा चल अभी मिलवाती हू। सीढ़ियों से ऊपर चढ़ी ऊपर का नजरिया बिल्कुल अलग कुछ लड़कियां पैरों में घुघरू बांधे थिरक रही थीं।

मुझे नाचने का बहुत शौक था,चाची से हाथ छुड़ाते दौड़ती हुई दीदी के कदम रोक ली। दीदी मुझे भी एक पैर में बांधो न। वो मुस्कुराते हुए एक घुघरू मेरे पैरों से जकड़ दी बस फिर क्या शुरू हो गयी मेरे नाचने की कला । इतना नाची की पैरों से खून फेक दिया। घुंघरू के निशान मिल गए।

रोते हुए चाची से बोली बहुत दुख रहा। चाची ,माँ को मत बताना। भूल गयी ,उन कुछ दिनों माँ को खूब नाचती सब पैसे देते मेरे शो का।

कुछ दिन बाद एक नई पारी की शुरुआत हुई , थाने अम्मा जो सबकी अम्मा थी। उन्होंने मुझे एक नया नाम दिया राधिका। हर कोई अब मुझे इसी नाम से जानता बुलाता।

पहली बार नाचने का जो इनाम मिला वो मेरे जिस्म के सौदे से मिला । पूरे के पूरे दस हजार,ओर सोने की सिकड़ी। बिक गयी उसी दिन, उसी दिन उस दर्द को समझी जो वहाँ रहती हर लड़की को दिन रात मिलता। सज संवर के लड़कों को रिझाना,ओर उनके बिस्तर गर्म करके पैसे जमा करना।

एक बार अम्मा ने एक अफसर को सौप दिया,नोच लिया कबाड़ी साले ने ,मानो कभी किसी को देखा न हो।रमेश बाबू मैं तुम्हारी कोई राधा नही हु ,सबकी राधा हू जहाँ ये राधा जिस्म के बाज़ार में राधिका के नाम से जानी जाती है।जहां खुलेआम जिस्म का फरोख्तपरोस दिनोरत किया जाता हैं।

यानी तुम बाजारू हो? रमेश ने चौकते हुए कहा।

राधिका ने गुस्से में बोला; बाजारू किसको बोला ,बोल मेहनत करती मेहनत। वो भी पूरे इमान से। जितना लेती है ,उतना देती भी हैं। और तुझसे कोई झूठ न बोली मैं। चल हट ,तुझ जैसे हजारों मिलते है जो अपना कहकर नोचते है। कोई बीबी बनाना चाहता है तो कोई रखैल।




यह बात ताे लाेग बखूबी जानते हाेंगे कि देह व्यापार सबसे पुराने व्यापारों में से एक है। प्राचीन सभ्यताओं में भी देह व्यापार का काफी जिक्र मिलता है। कई इतिहासकारों को ऐसी सबूत मिले हैं जिनसे इस बात की पुष्टि होती है कि प्राचीन सभ्यताओं में भी देह व्यापार किया जाता था।

आधुनिक युग में यह व्यापार संगठित हो गया है। आज के जमाने में हर बड़े शहर में एक ऐसा इलाका होता है। जिसकी पहचान देह व्यापार के स्थान के नाम पर होती है। अक्सर मीडिया में इन इलाकों को रेड लाइट एरिया कहा जाता है। ताे चलिए हम आपकाे बताते हैं कि इन्हें रेड लाइट एरिया क्याें कहा जाता है।

जैसे कि हज़ारों वर्षों से जिस्म बाज़ार का लाल रंग से रिश्ता रहा है। लाल रंग को कामुक और संवेदनशील माना जाता रहा है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बेल्जियम और फ्रांस के कई वेश्यालयों का वर्गीकरण किया गया था। अधिकारियों के लिए वेश्यालय के सामने नीले रंग का कोई चिन्ह लगाया जाता था। वहीं दूसरे दर्ज़े के लोगों के लिए लाल रंगों के चिन्ह प्रयोग में लाए जाते थे।

वही लाल रंग और वेश्याओं के बीच संबंधों के एक धार्मिक किताब से भी कुछ उदाहरण मिले हैं।इसके अनुसार रहाब नाम की वेश्या अपने घर की पहचान के लिए लाल रंग की रस्सी का प्रयोग करती थी। यौन-कर्मियों के स्थल यानी ज़िस्म बाज़ारों को वैधता प्रदान करने वाली पहल भारत में फिर से होने लगी है।

          धड़ल्ले से चलता देह व्यापार......

वेश्यावृत्ति सभी सभ्य देशों में आदिकाल से विद्यमान रही है। यह सदैव सामाजिक यथार्थ के रूप में स्वीकार की गई है और विधि एवं परंपरा द्वारा इसका नियमन होता रहा है। सामंतवादी समाज में यह अभिजातवर्ग की कलात्मक अभिरुचि एवं पार्थिव गौरवप्रदर्शन का माध्यम थी। आधुनिक यांत्रिक समाज में यह हमारी विवशता, मानसिक विक्षेप, भोगैषणा एवं निरंतर बढ़ती हुई आंतरिक कुंठा के क्षणिक उपचार का द्योतक है।

वस्तुत: यह विघटनशील समाज के सहज अंग के रूप में विद्यमान रही है। सामाजिक स्थिति में आरोह अवरोह आता रहा है, किंतु इसका अस्तित्व अक्षुण्ण, अप्रभावित रहा है। प्राच्य जगत् के प्राचीन देशों में वेश्यावृत्ति धार्मिक अनुष्ठानों के साथ संबंध रही है। इसे हेय न समझकर प्रोत्साहित भी किया जाता रहा। मिस्र, असीरिया, बेबीलोनिया, पर्शिया आदि देशों में देवियों की पूजा एवं धार्मिक अनुष्ठानों में अत्यधिक अमर्यादि वासनात्मक कृत्यों की प्रमुखता रहती थी तथा देवस्थान व्यभिचार के केंद्र बन गए थे। 

                  सच सुनना मुश्किल है?

आपको जान यह हैरानी होगी  कि दुनिया में ड्रग्स और हथियार के कारोबार के बाद, अपराध का जो धंधा तीसरे नंबर पर आता है, वह है इंसानों का सौदा करना? 

वेश्‍यावृत्ति भले ही  गैरकानूनी है, इसके बावजूद 5,00,000 बच्चियाँ वेश्‍याएँ हैं। एक और देश में 3,00,000 छोटी बच्चियाँ सड़कों पर शरीर बेचने का धंधा करती हैं, खासकर उन इलाकों में जहाँ ड्रग्स का कारोबार चलता है।
               रिपोर्ट के मुताबिक एशिया के देशों में तकरीबन 10 लाख लड़कियाँ वेश्‍याएँ हैं और गुलामी की ज़िंदगी जीती हैं। कुछ देश तो इसका केंद्र बन चुके हैं, जहाँ लोग बच्चों या किसी और के साथ लैंगिक संबंध रखने (सॆक्स टूरिज़म) के लिए अलग-अलग जगहों से आते हैं।

गरीबी और निराशा, बाल वेश्‍यावृत्ति को और भी ज्यादा हवा देती है। एक सरकारी अफसर के मुताबिक उसके देश में, बच्चों के शोषण और वेश्‍यावृत्ति का “सीधा-सीधा संबंध, टूटते परिवारों, भुखमरी और निराशा से जुड़ा होता है। कुछ माँ-बाप का कहना है कि गरीबी ने ही उन्हें अपने बच्चों को इस धंधे में धकेलने पर मजबूर किया है। सड़क पर पल रहे बच्चे देखते हैं कि ज़िंदा रहने के लिए उनके पास वेश्‍यावृत्ति के अलावा कोई चारा नहीं होता।

वेश्यावृत्ति एक व्यवसाय के रूप में प्रचलित है लेकिन भारत में इसका इतिहास ना सिर्फ बहुत पुराना बल्कि काफी हद तक रोचक और उल्लेखनीय भी है। अगर हम भारत के इतिहास पर नजर डालें तो ब्रिटिश शासन काल से भी बहुत पहले वेश्यावृत्ति ने अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी थी.....जिसे जान आप चकित रह जाएंगे।

किसी समय मे ये राजमहलों की शान हुआ करती थीं। अंग्रेजी हुकूमत के तले जिस तरह यह पेशा फला-फूला और जिस तरह इस पेशे का स्वरूप पूरी तरह बदल गया, वह बात उल्लेखनीय है। आज के दौर में क्लब और प्राइवेट महफिलों में डांस करने वाली लड़कियों को बार गर्ल्स कहा जाता है लेकिन 15वीं शताब्दी में ही इन बार गर्ल्स की जड़ें जमने लगी थीं जिन्हें राजमहलों की शान समझा जाता था।

वही इतिहास के पन्नों की हेर फेर कर देखे तो, प्राचीन समय में राजा-रजवाड़े और शाही घराने के लोग ‘खड़ी महफिलों’ में इन्हें आमंत्रित किया करते थे। ये महिलाएं इनकी महफिलों की शान समझी जाती थीं। इतिहासकारों का कहना है कि एक दौर था जब मुगल, ब्रिटिश शासक और हिन्दू राजा-महाराजे इन नर्तकियों के कदरदान हुआ करते थे, परंतु 19वीं शताब्दी की शुरुआत में ही इन स्त्रियों से उनका सम्मान और ओहदा छिनने लगा।

       16वीं शताब्दी तक इन नर्तकियों को शाही सम्मान हासिल था। ये राज नर्तकियां हुआ करती थीं, जिनके आसपास तक भी कोई सामान्य जन नहीं जा सकता था। यहां तक कि राजा-महाराजा और मुगल शासक तक भी इन नर्तकियों की कला का आनंद उठाते थे, उन्हें छूने की कोशिश नहीं करते थे।

लेकिन वक्त बदला और उस बदला बदली में इनकी कला की पहचान बदल कर ....वेश्यावृत्ति में तब्दील होगयी अब इस सफ़र को भी जरूर देखें।

ब्रिटिश शासन ,अंग्रेज लोग जब भी किसी महफिल में इन नर्तकियों का डांस देखते तो इनके प्रति अत्याधिक आकर्षित हो जाते। धन के बल पर वे इन्हें कुछ समय के लिए अपने निवास पर बुलाते और कभी-कभार पूरी रात इन्हें अपने साथ ही रख लेते।

पैसे की चकाचौंध और अंग्रेज सरकार से निकटता ही नर्तकियों के लिए बुरे समय की ओर इशारा किया,और इस तरह धीरे-धीरे जिस्म बेचना शुरू कर दिया और यही से शुरू हुई नर्तकियों की एक अलग पहचान वेश्या के नाम से।

ब्रिटिश सरकार के शासनकाल के दौरान ही वेश्यावृत्ति अपने पूरे चरम पर पहुंच चुकी थी। भारत में अपने वास के दौरान अंग्रेज इन महिलाओं को अपनी प्राइवेट पार्टियों में बुलाते और फिर पार्टी के बाद अपने मेहमानों के सामने इन महिलाओं को परोस देते थे।महिलाओं को भी इस बात से कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि वे पॉलिटिकल कनेक्शन और धन के लालच में खुद को सौप देती थी।

अब इन वेश्याओं का स्थान केवल शाही और सरकारी आवासों में ही नहीं था बल्कि रईस और नामी-गिरामी परिवारों के पार्टियों का भी ये हिस्सा बनने लगीं।
        18वीं शताब्दी में इन नर्तकियों के समूह और संगठन भी बनने लगे। कोलकाता, जो 1773-1912 तक अंग्रेजों की राजधानी रहा, वहां वेश्यावृत्ति एक बड़ा व्यवसाय बन गया। आए दिन कोई ना कोठा वहां खुलता और कोई ना कोई स्त्री मजबूरी या लालच में इस पेशे को स्वीकारती।

नर्तकियों से शुरू हुआ यह सफर........ आज एक ऐसे पड़ाव पर आ पहुंचा ,जहां वेश्या समाज के लिए अभिशाप और स्वयं अपने जीवन के लिए ही एक गाली बन गई।
         पुरुष उन्हें स्त्री नहीं भोग की एक वस्तु समझते हैं, चंद पैसों में जिसके शरीर का मनचाहे तरीके से हर रोज शोषण किया जाता है लेकिन क्या कोई रोक पाया नही?

आप को नही चुभती ये बात जो सच के साथ वे जी रही उसे रूपरेखा देने वाला भी यही समाज है? क्या एक स्त्री की मजबूरी का फायदा किस तरह उठाना है, या उठाया जा सकता है, ये बात मर्दवादी समाज बहुत अच्छे तरह से समझता है?
क्या कभी आपने सोचा, कि इसी समाज ने उन्हें घर की चारदीवारी से निकालकर सड़क पर खड़ा होने पर मजबूर कर दिया। नही ! क्योंकि हमें अपने बेटी की इज्ज़त दिखती है। वो भी किसी की बेटी हो सकती है ,चाहे वो एक वेश्या के कोख से ही जन्म क्यों न ली हो, उसे पैदा होने में जो बीज बोया  वो तो इसी समाज का हिस्सा रहा होगा न तो इन्हें एक अलग से पहचान कराना क्यों? क्यों नही सरकार इनके लिए एक ट्रेनिंग सेंटर खोलती,जिसमे उन्हें इन धंधों के बजाए, कढ़ाई, करने में नुपूण बनाया जाए। जिन्हें हस्तकला से जोड़ा जाए,शिल्पकलाओं से जोड़ा जाए। उनके अस्तित्व को एक बार ओर क्यों न नया नाम दिया जाए।

हर स्त्री इस गन्दे दलदल में नही फ़सना चाहती मगर ग़रीबी वो सब करती है जो कोई न चाहते हुए भी उसे करे। एक बार इन वेश्याओं के बारे में जरूर सोचे.... अपनी राय जरूर दे।


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