सोरहिया मेला

एक ऐसा मेला जहाँ लगाया जाता है सोलह परिक्रमा की फेरी, एक ऐसा मेला जहाँ जलाई जाती है सोलह दिए में बत्तीस दीप। एक ऐसा मेला जहाँ अभिषेक के लिए महिलाएं लगाती है लाइन। एक ऐसा मेला जहाँ घण्टो लम्बी कतार में लग महिलाएं सोलह विधान का बखान करती है, कोई नृत्य करता है तो कोई भक्ति भजन से ही मन को मोह लेता है।


चारो तरफ मूर्तियों का अंबार जो हर तरफ रंग बिरंगी चुनरिया और आकर्षक मूर्तियां लोगो का ध्यान खिंचती है....आख़िर क्यों है ऐसा, ऐसी कौन सी जगह है ये? क्यों सज रखा है इतना?


नमस्कार ,मैं आकांक्षा आज आपको लेकर चल रही हूं, उत्तर प्रदेश के रहस्मयी काशी के सिद्धगिरीबाग जहाँ की छठा इन  सोलह दिन तक देखने को मिलता हैं। आज की यात्रा हम आए है महालक्ष्मी के दरबार जहाँ लगा है मशहूर अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा .....सोरहिया मेला।


धर्म नगरी काशी में वैसे तो सात वार और नौ त्यौहार की मान्यता वर्षों से चली आ रही है जिसमें 16 दिनों तक चलने वाले सोरहिया मेले का खास महत्व है। भादो की शुक्ल पक्ष की अष्टमी से शुरू हो कर आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी तक इस सोरहिया मेले का आयोजन लक्सा स्थित सिद्धिगिरीबाग में हर वर्ष प्राचीन लक्ष्मी मंदिर पर सोलह दिनों तक इस पर्व के दौरान महिलाएं व्रत रह कर अपने सौभाग्य के लिए  मां लक्ष्मी की पूजा करती है।


मान्यता है कि इससे सुख समृद्धि और संतान सुख की प्राप्ति होती है।हिन्दू मान्यता अनुसार, मां लक्ष्मी को पूजे जाने का विशेष स्थान है। मां लक्ष्मी को धन, सम्पदा, और वैभव की देवी माना जाता है।काशी में लगने वाले इस खास 16 दिनों का पर्व सोरहिया मेला,जिसमें पूजी जाती है , मां लक्ष्मी इन 16दिनों तक लगातार।


इस दौरान हमारी मुलाकात हुई मन्दिर के महंत कल्लू जी महाराज से उन्होंने बताया कि इस दौरान हजारों लाखों श्रद्धालु  प्राचीन लक्ष्मी कुंड पर मां की उपासना करते है और मंदिर में मां के दर्शन प्राप्त करते है। ऐसा करने से सुख व समृद्धि के साथ ही संतान प्राप्ति का वैभव भी प्राप्त होता है।


व्रती महिलाएं पहले ही दिन से मां लक्ष्मी की मूर्ति में धागा लपेट कर पूरे सोलह दिन उसकी पूजा अर्चना करती है और अंतिम 16 वे दिन जिउतपुत्रिका यानि जिवतिया पर्व के साथ इस कठिन व्रत तप की समाप्ति करती हैं। साथ ही मां लक्ष्मी को 16 अलग अलग प्रकार के फल फूल और अन्य आमग्री अर्पित करती हैं।


जब हमने जानना चाहा कि आख़िर इस मेले को सोरहिया का नाम ही क्यों दिया गया ?


तब कल्लू जी बताते है कि इस पर्व के पीछे की  गाथा है कि महाराजा जिउत की कोई संतान नहीं थी जिसपर महाराजा ने मां लक्ष्मी का ध्यान किया और मां लक्ष्मी ने सपने में दर्शन देकर सोलह दिनों के इस कठिन व्रत को महाराजा से करने को कहा, जिसके बाद महाराजा को संतान के साथ समृद्धि और ऐश्वर्य की भी प्राप्ति हुई। तभी से इस परंपरा का नाम सोरहिया पड़ा और आज भी भक्त पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ इस मेले और व्रत में भागीदारी करते हैं।


काशी खंड के अनुसार महालक्ष्मी मंदिर में दर्शन-पूजन से सौभाग्य, दीद्र्यायु, धन आदि की प्राप्ति होती है। भाद्र के शुक्ल पक्ष अष्टमी तिथि के दिन से महिलाएं मां लक्ष्मी का दर्शन करती हैं और आश्विन कृष्ण पक्ष अष्टमी के दिन अपने संकल्प के अनुसार व्रत का समापन करती है। इसी दिन जिउतिया मेला भी पड़ता है।


सोलह गांठ में गुंथा सौभाग्यकामना से पौराणिक लक्ष्मी कुंड पर लगने वाला सोरहिया मेला का समापन अब दो तारीख को होगा। इसी के साथ महिलाएं सोलह गांठ का धागा पूज कर बांह में बांधने के साथ ही सोलह दिनी जो व्रत की अब कुण्ड पर सोलह विधि द्वारा भोग बना माँ को चढाएँगी। साथ ही जीवित्पुत्रिका व्रत के लिए महिलाओं का रेला पूरे कुण्ड पर उमड़ेगा।



स्कन्दपुराण में वर्णित है

पौराणिक लक्ष्मी कुण्ड के बारे में ऐसी मान्यता है कि भगवान शंकर ने काशी में 64 योगिनियों को भेजा। चौसट्टी योगिनी चौसट्टी घाट पर माता चौसट्टी के मंदिर के रूप में स्थापित है। जबकि शिव द्वारा भेजी गई मयूरी योगिनी लक्ष्मी कुण्ड पहुंची। तत्पश्चात् अलग-अलग कुण्डों के अस्तित्व को बनाये रखने में मयूरी योगिनी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। लक्ष्मी कुण्ड के निकट स्थित राम कुण्ड व सीता कुण्ड का भी प्राचीन काल में पौराणिक महत्व रहा। लेकिन उक्त कुण्डों पर किसी उत्सव, महोत्सव व पर्व न होने के कारण वे अपना महत्व खोते गये। बदली परिस्थितियों में धीरे-धीरे मयूरी योगिनी द्वारा अस्तित्व में आयी राम कुण्ड व सीता कुण्ड, जानकी कुण्ड का लोप हो गया। लेकिन सोरहिया मेला के कारण लक्ष्मी कुण्ड का स्वरूप ज्यों का त्यों आज भी सुरक्षित है।

तो कैसी रही आज की यात्रा हमे जरूर बताएं, अब मिलेंगे अगली यात्रा पर तब तक के लिए नमस्कार।








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