किताबें बोलती है .. मानवता की जीती-जागती मिसाल थीं मदर टेरेसा

चमत्कार यह नहीं की हम यह काम करते हैं बल्कि यह है कि ऐसा करने में हमें खुशी मिलती है।क्योंकि शांति की शुरुआत मुस्कराहट से होती है। यदि आप सौ लोगों को नहीं खिला सकते तो एक को ही खिलाइए। ये वाक्य थे ये सोच थी उस माँ की जिसने न जाने कितनों पर अपनी गरिमा बनाई। वो शख्सियत है - मदर टेरेसा।


जी हाँ आज मैं मदर टेरेसा के जीवन को टटोलना चाहूँगी ओर उनसे कुछ सीखना चाहूँगी की किस तरह संघर्ष में हम खुद को मजबूत बनाएं। क्योंकि मदर टेरेसा भी एक सामान्य परिवार से ही थी। उनका कहना था कि यदि मुझ पर कुछ लिखना ही है तो सिर्फ मेरे कार्यो पर लिखो। ताकि लोगो को प्रेणना मिल सके।

मदर टेरेसा एक ऐसे महान लोगों में एक हैं, जो सिर्फ दूसरों के लिए जीती थी। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन लोगों की सेवा और भलाई में लगा दिया। आज दुनिया में ऐसे ही महान लोगों की जरूरत है, जो मानवता की सेवा को सबसे बड़ा धर्म समझे।

               एग्नेस गोंझा बोयाजिजू'  की कहानी


छोटे से शहर की मदर टेरेसा आज हर किसी की माँ के रूप में प्रख्यात हैं

26 अगस्त 1910 मदर टेरेसा का जन्म मेसिडोनिया की राजधानी स्कोप्जे शहर में हुआ। ‘एग्नेस गोंझा बोयाजिजू' के नाम से एक अल्बेनियाई परिवार में उनका लालन-पालन हुआ। उनके पिता का नाम निकोला बोयाजू और माता का नाम द्राना बोयाजू था। 

मदर टेरेसा का असली नाम ‘एग्नेस गोंझा बोयाजिजू' था। अलबेनियन भाषा में 'गोंझा' का अर्थ 'फूल की कली' होता है। वे एक ऐसी कली थीं जिन्होंने गरीबों और दीन-दुखियों की जिंदगी में प्यार की खुशबू भरी।
वे 5 भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। टेरेसा एक सुन्दर, परिश्रमी एवं अध्ययनशील लड़की थीं। टेरेसा को पढ़ना, गीत गाना विशेष पसंद था। उन्हें यह अनुभव हो गया था कि वे अपना सारा जीवन मानव सेवा में लगाएंगी।

उन्होंने पारंपरिक वस्त्रों को त्यागकर नीली किनारी वाली साड़ी पहनने का फैसला किया और तभी से मानवता की सेवा के लिए कार्य आरंभ कर दिया। 

मदर टेरेसा आयरलैंड से 6 जनवरी 1929 को कोलकाता में ‘लोरेटो कॉन्वेंट’ पंहुचीं। इसके बाद मदर टेरेसा ने पटना के होली फैमिली हॉस्पिटल से आवश्यक नर्सिंग ट्रेनिंग पूरी की और 1948 में वापस कोलकाता आ गईं। 1948 में उन्होंने वहां के बच्चों को पढ़ाने के लिए एक स्कूल खोला और बाद में ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ की स्थापना की जिसे 7 अक्टूबर 1950 को रोमन कैथोलिक चर्च ने मान्यता दी। 

 
मदर टेरेसा की मिशनरीज संस्था ने 1996 तक करीब 125 देशों में 755 निराश्रित गृह खोले जिससे करीबन 5 लाख लोगों की भूख मिटाई जाने लगी। टेरेसा ने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ के नाम से आश्रम खोले। ‘निर्मल हृदय’ आश्रम का काम बीमारी से पीड़ित रोगियों की सेवा करना था, वहीं 'निर्मला शिशु भवन’ आश्रम की स्थापना अनाथ और बेघर बच्चों की सहायता के लिए हुई, जहां वे पीड़ित रोगियों व गरीबों की स्वयं सेवा करती थीं।

इसी सेवा भाव की गरिमा में मदर टेरेसा ने लाखों लोगों को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया...

मदर टेरेसा जब भारत आईं तो उन्होंने यहाँ बेसहारा और विकलांग बच्चों तथा सड़क के किनारे पड़े असहाय रोगियों की दयनीय स्थिति को अपनी आँखों से देखा और फिर वे भारत से मुँह मोड़ने का साहस नहीं कर सकीं। वे यहीं पर रुक गईं और जनसेवा का व्रत ले लिया, जिसका वे अनवरत पालन करती रहीं।

इन्ही बीच 1983 में 73 वर्ष की आयु में उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। उस समय मदर टेरेसा रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के लिए गई थीं। इसके बाद साल 1989 में उन्हें दूसरा दिल का दौरा आया। 

बढती उम्र के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। 13 मार्च 1997 को उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितंबर 1997 को उनकी मौत हो गई। 

 
उनकी मौत के समय तक ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ में 4,000 सिस्टर और 300 अन्य सहयोगी संस्थाएं काम कर रही थीं, जो विश्व के 123 देशों में समाजसेवा में लिप्त थीं। 

जिस आत्मीयता के साथ उन्होंने दीन-दुखियों की सेवा की उसे देखते हुए पोप जॉन पाल द्वितीय ने 19 अक्टूबर 2003 को रोम में मदर टेरेसा को 'धन्य' घोषित किया था। आपको बता दे कि मदर टेरेसा आज हमारे बीच भले ही नहीं हैं, पर उनकी मिशनरी आज भ‍ी समाज सेवा के कार्यों में लगी हुई है। 

                     सम्मान और पुरस्कार :- 


मदर टेरेसा को मानवता की सेवा के लिए अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए। साल 1962 में भारत सरकार ने उनकी समाजसेवा और जनकल्याण की भावना की कद्र करते हुए उन्हें 'पद्मश्री' से नवाजा। साल 1980 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारतरत्न’ से अलंकृत किया गया।

विश्वभर में फैले उनके मिशनरी के कार्यों की वजह से व गरीबों और असहायों की सहायता करने के लिए मदर टेरेसा को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया।

                     संत की उपाधि

09 सितम्बर 2016 को वेटिकन सिटी में पोप फ्रांसिस ने मदर टेरेसा को संत की उपाधि से विभूषित किया।

तो ये थी मिशाल मदर की कहानी ....जो आज के समय मे कही खो गयी है। आज इंसानियत हैवानियत का रूप धारण कर लिया है। लोग आपसी सहयोग तक तो करना नही चाह रहे।तो दूसरों की कैसे सोचगे। वक्त के साथ लोग भी बदल गए हैं। इनसे हमे इंसानियत की प्रेरणा मिलती हैं।


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