रहस्यमयी काशी में चमत्कारी कुण्ड

रहस्यों से बंधी काशी,जिसपे शक की कोई गुंजाइश नही। क्योंकि सच तो पुराणों के पन्ने खुद ब खुद चीख- चीख कर कहते है.....। आज के इस यात्रा में हम आपको लेकर चल रहे है, काशी के उस रहस्यमयी जगह जहाँ आपको इस मॉडर्नाइजेशन में पनप रहे लोग ओर कुछ पुरानी विधा वाले लोग भी मिलेगे,लेकिन क्यों ?


आख़िर क्या है ऐसा यहाँ जो लोगो की इतनी भीड़ ? क्यों लगाई गई है एक रात पहले से लोगो ने भीड़? आख़िर क्या है आज जो काशी के वर्दी धारी कम पड़गये और बाहर से बुलाना पड़ा ...इन वर्दीधारीयो  को?


यही पता लगाने मैं पहुँची काशी के अस्सी चौराहे पर जहाँ मालूम करने पर पता लगा कि ये लम्बी लम्बी कतारे सुबह से ही खड़ी है महादेव के दर्शन को,जो कि आज नही बल्कि रात 12 बजे के बाद से खुलेगा। उत्सुकता हुई,ओर बस बैठ गयी पहलवान लस्सी जी के दुकान पर। बात चलती रही, ओर सूर्य अस्त होता रहा....तब पता चला कि ये लम्बी कतारे कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही। इन कतारों में बच्चो से लेकर वृद्ध महिला तक खड़ी हुई है यहाँ तक मर्दो की भी लाइन लगी है।


पहलवान जी ने बताया कि ये काशी है,जिसमे अनेको रहस्य सिमटे हुए है। ये एक स्नान पर्व है जो कल लोलार्क श्रष्ठी यानी बाबा लोलरकेश्वर महादेव का दिन है इस दिन बाबा लोलार्क की पूजा-आराधना व दम्पति जोड़ा इस कुण्ड में स्नान कर पुत्र की कामना करते है।


यह सुनते मन मे रुकने का ठान ली,ओर बस शुरू कर दी पड़ताल,आखिरकार पड़ताल करते करते ...पहुँच गयी मंदिर तक । यह जानने की इस बात में कितना सच है ,कितना फ़साना ?


                 कितना सच , कितना फ़साना ?


आस्था की नगरी में  फ़साना कम ,सच ज्यादा मिलता है ये हम नही वहाँ खड़े एक दम्पति ने स्पष्ट जवाब देते हुए बोला। मगर पड़ताल तो करनी थी, क्योंकि आज के समय मे जहाँ विज्ञान इतना विकास कर चुका हो,वहाँ ऐसी चमत्कारी बातों पर थोड़ा तो शक की सुई घूमने लगती है कि आज भी लोगो मे अंधविश्वास की आस्था जाग रही या सचमुच यहाँ है ही कुछ चमत्कार?


बाबा की नगरी काशी, तो सब सच ही होगा लेकिन मन बार बार ये कह कर दिमाग घुमा देता की इस कलियुग में किसी भी चीज पर भरोसा करना थोड़ा भी मुश्किल है।


तो बस बढ़ चली ...अस्सी से तुलसीघाट की ओर पैदल,वहाँ से मात्र 100मीटर की दूरी पर भदैनी मोहल्ले में पवित्र लोलारक कुंड स्थित है। आसपास के लोगो ने बताया कि इसका जिक्र पुराणों के पन्ने यानी महाभारत में भी इस कुण्‍ड का उल्‍लेख वर्णित है।


तभी मेरी मुलाकात मन्दिर के महंत श्री लिंगिया जी महाराज से हुई...उन्होंने विस्तार पूर्वक इस मंदिर के बारे में बताना शुरू कर दिया, पूरे मन्दिर से कुण्ड तक घुमाया।


उन्होंने  बताया कि इस कुण्ड को जो आप चारो तरफ से दीवारों पर कीमती पत्थरों से सजावट का घेरा देख रही ये रानी अहिल्‍याबाई होल्‍कर ने करवाया था। यह कुण्ड एक हथकरघा के सामान है। क्योंकि भगवान सूर्य के चक्र का भी आधा हिस्सा,हथकरघा नुमा ही है।

उन्होंने

इस कुण्ड को मन्दिर के दूसरे प्रांगण से दिखाने की कोशिश की जहां वह साफ दिख रहा था,जो कि वो बता रहे थे। एक ताखे पर भगवान सूर्य का प्रतीक चक्र बना हुआ है। इतिहासों की माने तो इस स्थान पर कई वर्षों पूर्व आकाश से भयानक आवाज करते हुये एक उल्का पिंड गिरा था। आग की लपटों में घिरी उल्का ऐसा भान करा रही थी कि मानों सूर्य पिंड ही पृथ्वी पर गिरा हो।बस इसी उल्का पिंड के पृथ्वी पर गिरने के कारण ही ........इस लोलार्क-कुण्ड का निर्माण हुआ।


साथ ही पौराणिक इतिहासों के मद्देनजर यहां पर भगवान सूर्य का चक्र बनने से इस मंदिर को लोलार्क कुण्ड कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक, सूर्य देव ने भगवान शंकर की आराधना के बाद इस लोलार्क कुंड और लोलार्केश्वर महादेव मंदिर की स्थापना की थी। 



इसी मन्दिर में  लोलाकेश्‍वर का मंदिर भी है। जिनकी पूजा-अर्चना बड़ी संख्या में लोग मौजूद हो कर करते है,हर वर्ष भादो के महीने (अगस्‍त-सितम्‍बर) में। जिसमे बड़े पैमाने पर यहां मेला लगता है,और प्रशासन द्वारा पुख्ता इंतजाम करवाये जाते हैं,जिसे कोई भी अनहोनी न होने पाए।


                    सूर्योपासना का महापर्व



यहाँ भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को एक विशाल मेला लगता है,जो कि लोलार्क छठ के नाम से प्रचलित है। भदैनी क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध राम मंदिर के बगल  लोलार्क कुण्ड लोलार्क छठ के नाम से भी जाना जाता है।




उन्होंने बताया कि

शास्त्रकारों के हिसाब से माने तो अकबर और जहांगीर के युग में इस कुण्ड को वाराणसी का नेत्र माना जाता था। ऐसी कल्पना की जाती है कि उस युग में यहाँ लोलार्क नाम का एक मुहल्ला भी था।



पुरातत्वविदों के अनुसार यहाँ स्थित मंदिर का उल्लेख गाहड़वाल ताम्रपत्रों में मिलता है। बावड़ी का मुंह दोहरा है, एक में पानी इकट्ठा होकर दो कुओं में जाता है। यह कुएं पत्थर के बने हैं और उन पर जगत बना हुआ है। दोनों जगतों के मध्य प्रदक्षिणा पथ है जिसे कहा जाता है कि अहिल्याबाई, अमृतराव तथा कूच विहार के महाराजा ने बनवाया था।




कुण्ड की अनेक मान्यताओं में यह भी शामिल है कि इसमें स्नान करने से बांझ (संतानोत्पत्ति में असमर्थ) महिलाओं को भी संतानोत्पत्ति होती है और चर्म रोगियों को भी लाभ मिलता है।


स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में, शिवरहस्य, सूर्य पुराण में और काशी दर्शन में विस्तार से है कि ,मान्यताओं के अनुसार  लोलार्क षष्ठी के दिन यहाँ पर स्नान करने से पुत्र प्राप्ति सम्भव और शादी के बाद भी लोग यहाँ पूजन-दर्शन करने आते हैं। जिनको पुत्र की प्राप्ति होती है,उन्हें यही पर उसके मुंडन के साथ सात सुहागिन को मिलकर घी का पूड़ी हलवा बना कर ,भगवान लोलरकेश्वर महादेव को चढ़ाने की महिमा है।





तो ये है इस रहस्यमयी कुण्ड का राज .....जहाँ, बाबा लोलरकेश्वर अपने भक्तों की आस्था से खुश होकर उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान देते हैं।


लेकिन आपको भले ही मेरे तरह झूठ लग रहा हो,मगर आस्था ओर भक्ति में कही न कही चमत्कार जरूर है। क्योंकि यू ही नही यहाँ लोग दूर दराज से आते हैं।


लोलार्क कुण्ड अपने मे खुद एक इतिहास को दबाए बैठा है। लेकिन ये तो थी ,महज कुण्ड की बात मैं यहाँ आये जब लोगो से बात की तो 99%में 80% लोग पुत्र प्राप्ति के लिए ही आये थे। जो सुन तकलीफ़ हुआ कि कितना भी कुछ क्यों न हो जाए...बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ,बेटी सम्मान ये सब लोगो की मानसिकता तक सिमट कर ही धरा का धरा रह जाएगा। क्यों कि उन्हें तो पुत्र की लालसा है। ख़ैर,आपको बता दे कि ये उपासना इतना भी आसान नही....!


        त्याग से जुड़ा मनोकामना रहस्य




जी हां ,यह उपासना त्याग से ही जुड़ा है। जिन महिलाओं को संतान की प्राप्ति नही हो रही या पुत्र की प्राप्ति नही हो रही ,या जिन बच्चो पर रक्षा कवच यानी ऊपरी माया जैसा हो या चर्म रोग से जो लोग पीड़ित हो तो वो लोग इस कुंड में स्नान करते ह ओर बाबा लोलार्क से विनती कर किसी भी पांच फ्लो का त्याग करते है। जिसे घर में कोई भी सेवन नही करता।


खासतौर पर माँ,क्योंकि कहा जाता है कि इन त्याग फलों को एक चुन्नी में बांध सुई से चुभो कर इस कुण्ड में बाबा को अर्पित किया जाता है। फिर उन फलों को नही खाया जाता ,यदि जो महिलाएं इसका सेवन करती है उन्हें भक्षीण कहा जाता ,यानी अपनी संतान को खाने वाली।


इसी त्याग के साथ महिलाए स्नान करने से संतान प्राप्त करती हैं।साथ ही  दंपती स्नान के बाद कुंड पर ही कपड़े छोड़ देते हैं। यानी शरीर पे जो भी रहता है उसे उसी समय स्नान के बाद कुण्ड में ही त्याग दिया जाता है,चूड़ी बिंदी,सिंदूर,पायल,बिछिया सब कुछ कान ,हाथ,गले का सब कुछ वस्त्र तक त्याग कर उस कुण्ड से बाहर निकलना होता है। जिससे  छाया, टोना, टोटका आदि का निवारण हो सके।


लिंगिया जी महाराज ने बताया कि,

संतान के लिए यहां स्नान करने वाले दंपती की मनोकामना जरूर पूरी होती है। स्नान के बाद दंपती कुंड पर ही कपड़े और जूता-चप्पल छोड़ देते हैं। कुंड में कोई न कोई एक फल भी छोड़ा जाता है।वैसे तो पांच फलों को छोड़ने का विधान है।


       सूर्योपासना के इस महापर्व पर वे दंपती भी आते हैं जिनकी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। वे अपनी संतान के साथ यहां आते हैं और उनका मुंडन संस्कार कराते हैं। माँ चण्डिका महिसासुर मर्दनी के दर्शन कर बाबा लोलार्क ओर लोलरकेश्वर महादेव का आशीर्वाद प्राप्त करते है।


तो ये थी काशी के रहस्यमय कुण्ड की यात्रा...।

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