शख्सियत के पन्ने " विनोबा भावे " किताबें बोलती हैं

हिंदी युगी के मशहूर शख्सियत विनोबा जी की मान्यता थी कि- सभी भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी का प्रयोग हो, इससे राष्ट्रीय एकता और अन्तरराष्ट्रीय सद्भाव लाने में सहायता मिलेगी।


मैं नहीं कहता कि नागरी ही चले, बल्कि मैं चाहता हूं कि नागरी भी चले

बीसियों भाषाओं के ज्ञाता विनोबा जी देवनागरी को विश्व लिपि के रूप में देखना चाहते थे। भारत के लिये वे देवनागरी को सम्पर्क लिपि के रूप में विकसित करने के पक्षधर थे।

उनके ही विचारों से प्रेरणा लेकर नागरी लिपि संगम की स्थापना की गयी है जो भारत के अन्दर और भारत के बाहर देवनागरी को उपयोग और प्रसार करने के लिये कार्य करती है।

विनोबा से पहली ही मुलाकात में प्रभावित होने पर गांधी जी ने सहज-मन से कहा था—
   बाकी लोग तो इस आश्रम से कुछ लेने के लिए आते हैं, एक यही है जो हमें कुछ देने के लिए आया है।


  
(जन्म11सिंतबर,1895           मृत्यु 15नवम्बर,1982)

आपको बता दे कि विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। जो कि महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में एक गांव है  गागोदा, यहां के चितपावन ब्राह्मण थे  नरहरि भावे।

गणित के प्रेमी और वैज्ञानिक सूझबूझ वाले,रसायन विज्ञान में उनकी रुचि काफी थी। उन दिनों रंगों को बाहर से आयात करना पड़ता था। नरहरि भावे रात-दिन रंगों की खोज में लगे रहते।

उनकी माता रुक्मिणी बाई विदुषी महिला थीं। उदार-चित्त, आठों याम भक्ति-भाव में डूबी रहतीं। इसका असर उनके दैनिक कार्य पर भी पड़ता था। मन कहीं ओर रमा होता तो कभी सब्जी में नमक कम पड़ जाता, कभी ज्यादा।
         कभी दाल के बघार में हींग डालना भूल जातीं तो कभी बघार दिए बिना ही दाल परोस दी जाती। पूरा घर भक्ति रस से सराबोर रहता था। इसलिए इन छोटी-मोटी बातों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता था।

उसी सात्विक वातावरण में 11 सितंबर 1895 को विनोबा का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम था विनायक।उनकी  मां उन्हें प्यार से विन्या कहकर बुलातीं। विनोबा के अलावा रुक्मिणी बाई के दो और बेटे थे: वाल्कोबा और शिवाजी।

आपको बता दे कि विनोबा नाम गांधी जी ने दिया था।महाराष्ट्र में नाम के पीछे ‘बा’ लगाने का जो चलन है, उसके अनुसार. तुकोबा, विठोबा और इसी से बना ....विनोबा।

मां का स्वभाव विनायक ने भी पाया था। उनका मन भी हमेशा अध्यात्म चिंतन में लीन रहता,न उन्हें खाने-पीने की सुध रहती थी। न स्वाद की खास पहचान थीं। मां जैसा परोस देतीं, चुपचाप खा लेते।

विनोबा को अध्यात्म के संस्कार देने, उन्हें भक्ति-वेदांत की ओर ले जाने में, बचपन में उनके मन में संन्यास और वैराग्य की प्रेरणा जगाने में उनकी मां रुक्मिणी बाई का बड़ा योगदान था।
      बालक विनायक को माता-पिता दोनों के संस्कार मिले। गणित की सूझ-बूझ और तर्क-सामथ्र्य, विज्ञान के प्रति गहन अनुराग, परंपरा के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से अलग हटकर सोचने की कला उन्हें पिता की ओर से प्राप्त हुई।
      जबकि मां की ओर से मिले धर्म और संस्कृति के प्रति गहन अनुराग, प्राणीमात्र के कल्याण की भावना। जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, सर्वधर्म समभाव, सहअस्तित्व और ससम्मान की कला, आगे चलकर विनोबा को गांधी जी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना गया।

आज भी कुछ लोग यही कहते है कि वे गांधी जी के ‘आध्यात्मिक उत्तराधिकारी’ से बहुत आगे, स्वतंत्र सोच के स्वामी थे। मुख्य बात यह है कि गांधी जी के प्रखर प्रभामंडल के आगे उनके व्यक्तित्व का स्वतंत्र मूल्यांकन हो ही नहीं पाया।

दर्शनशास्त्र उनका प्रिय विषय था। आश्रम में दाखिल होने के कुछ महिनों के भीतर ही दर्शनशास्त्र की आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने एक वर्ष का अध्ययन अवकाश लिया था।

यह जान आपको भी शायद रुचि आये कि एक ओर विनोबा संन्यास की साध में, सत्यान्वेषण की ललक लिए काशी की गलियों में, घाटों पर भटक रहे थे।
        वहीं दूसरी ओर एक और जिज्ञासु भारत को जानने, उसके हृदयप्रदेश की धड़कनों को पहचानने, उससे आत्मीयता भरा रिश्ता कायम करने के लिए भारत-भ्रमण पर निकले हुए थे। असल बात यह है कि काशी एक ऐसी नगरी है जो आपका मन भंग कर देती है।

विनोबा ने समाचारपत्र के माध्यम से ही गांधी जी के बारे में जाना. और उन्हें लगा कि जिस लक्ष्य की खोज में वे घर से निकले हैं, वह पूरी हुई......

काशी में महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित हिंदू विश्वविद्यालय में एक बड़ा जलसा हो रहा था। 4 फ़रवरी 1916, जलसे में राजे-महाराजे, नबाव, सामंत सब अपनी पूरी धज के साथ उपस्थित थे। सम्मेलन की छटा देखते ही बनती थी। उस सम्मेलन में गांधी जी ने ऐतिहासिक भाषण दिया। वह कहा जिसकी उस समय कोई उम्मीद नहीं कर सकता था।
वक्त पड़ने पर जिन राजा-सामंतों की खुशामद स्वयं अंग्रेज भी करते थे, जिनके दान पर काशी विश्वविद्यालय और दूसरी अन्य संस्थाएं चला करती थीं, उन राजा-सामंतों की खुली आलोचना करते हुए गांधी जी ने कहा कि अपने धन का सदुपयोग राष्ट्रनिर्माण के लिए करें। उसको गरीबों के कल्याण में लगाएं।
      उन्होंने आवाह्न किया कि वे व्यापक लोकहित में अपने सारे आभूषण दान कर दें। वह एक क्रांतिकारी अपील थी। सभा में खलबली मच गई। पर गांधी की मुस्कान उसी तरह बनी रही। अगले दिन उस सम्मेलन की खबरों से अखबार रंगे पड़े थे। विनोबा ने समाचारपत्र के माध्यम से ही गांधी जी के बारे में जाना।


7 जून 1916 को विनोबा की गांधी से पहली भेंट हुई। उसके बाद तो विनोबा गांधी जी के ही होकर रह गए। गांधी जी ने भी विनोबा की प्रतिभा को पहचान लिया था। इसलिए पहली मुलाकात के बाद ही उनकी टिप्पणी थी कि अधिकांश लोग यहां से कुछ लेने के लिए आते हैं, यह पहला व्यक्ति है, जो कुछ देने के लिए आया है।

काफी दिन बाद अपनी पहली भेंट को याद करते हुए विनोबा ने कहा था—

जिन दिनों में काशी में था, मेरी पहली अभिलाषा हिमालय की कंदराओं में जाकर तप-साधना करने की थी। दूसरी अभिलाषा थी, बंगाल के क्रांतिकारियों से भेंट करने की। लेकिन इनमें से एक भी अभिलाषा पूरी न हो सकी। समय मुझे गांधी जी तक ले गया। वहां जाकर मैंने पाया कि उनके व्यक्तित्व में हिमालय जैसी शांति है तो बंगाल की क्रांति की धधक भी। मैंने छूटते ही स्वयं से कहा था, मेरे दोनों इच्छाएं पूरी हुईं।

रचानात्म्क कार्यों के अतिरित्क वे महान स्वतंत्रता सेनानी भी थे। नागपुर झंडा सत्याग्रह में वे बंदी बनाये गये। 1937में गान्धिजी जब लंदन की गोलमेज कांफ्रेंस से खाली हाथ लोटे तो जलगांव में विनोबा भावे ने एक सभा में अंग्रेजों की आलोचना की तो उन्हें बंदी बनाकर छह माह की सजा दी गयी।

कारागार से मुक्त होने के बाद गान्धिजी ने उन्हें पहेला सत्याग्रही बनाया। 17 अक्टूबर 1940 को विनोबा भावेजी ने सत्याग्रह किया और वे बंदी बनाये गये तथा उन्हें 3 वर्ष के लिए सश्रम कारावास का दंड मिला। गाँधी जी ने 1942 को भारत छोडा आंदोलन करने से पूर्व विनोबाजी से परामर्श लिया था।

तो ये थे महान शख्शियत जिन्होंने कई चुनोतियाँ को लरकारते हुए..देश मे अपना परचम लहराया साथ ही हिंदीभाषी होते हुए हिंदी पर भी जोर दिया।

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