हिंदी युग-योगदान " गजानन माधव मुक्तिबोध " किताबें बोलती हैं


हिंदी युग मे तमाम ऐसे महान मशहूर शख्सियत है जिन्होंने हिंदी क्षेत्र में अपना परिचम लहलाहया। उन्हीं में से एक मशहूर शख्शियत है गजानन माधव मुक्तिबोध...जिन्होंने हिंदी साहित्य  के कविकार , आलोचक,कहानीकार,निबन्धकार,व उपन्यासकार थे। जिनकी पुस्तिके कामायनी एक पुनर्विचार मशहूर है।
आज ही के दिन हमने इस महान शख्सियत को खोया जरूर  था,लेकिन उनकी रचनाओं ने हमें आज भी अपने से जोड़ रखा है। ऐसे शख्सियत को हमारा नमन🙏



(जन्म13 नवंबर,1917            मृत्यु 11सिंतबर,1964)

 चांद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल (कविता संग्रह), काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी (कहानी संग्रह), कामायनी:एक पुनर्विचार, नयी कविता का आत्मसंघर्ष, नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र(आखिर रचना क्यों), समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी एवं भारत:इतिहास और संस्कृति।


दरअसल, मुक्तिबोध के काव्य की अंतर्वस्तु जितनी व्यापक है, उससे भी ज्यादा गहरी। अपनी रचनाओं के माध्यम से वे समाज, जीवन और युग के जिस यथार्थ का साक्षात्कार करते हैं और जिसे अभिव्यक्त करते हैं, वह वस्तुतः जटिल और इतना उलझा हुआ और षड्यंत्रियों से पटा हुआ है कि उसे सीधे-सीधे पकड़ पाना या अभिव्यक्त कर पाना मुक्तिबोध के लिए स्वभावतः ही संभव नहीं था।


मुक्तिबोध के बीज शब्द हैं- आत्मसंघर्ष, अंतःकरण और आत्माभियोग। मुक्तिबोध को पढ़िए तो लगेगा कि वह एक सबसे बड़ा आत्माभियोगी कवि है।


मुक्तिबोध के पूर्वज परदादा वासुदेवजी उन्नीसवीं सदी के आरंभ में महाराष्ट्र छोड़कर ग्वालियर (मध्यप्रदेश) के मुरैना जिला में पड़ने वाले श्योपुर नामक कस्बे में आ बसे थे।वासुदेव के पुत्र गोपालराव वासुदेव ग्वालियर राज्य के टोंक (राजस्थान) जिला में कार्यालय अधीक्षक थे।


उन्हें फारसी की अच्छी जानकारी थी, इस कारण लोग उन्हें ‘मुंशी’ कहकर भी बुलाते थे। उनकी नौकरी जिस गाँव में होती, वे महीना दो महीना वहाँ रह आते और मेवा-मिठाई से अपना सत्कार कराए बिना प्रसन्न न होते थे।


गोपालराव के इकलौते पुत्र थे- माधवराव मुक्तिबोध। माधवरावजी केवल मिडिल तक शिक्षित थे, लेकिन पिता की तरह वे भी अच्छी फारसी जानते थे। धर्म और दर्शन में भी उनकी गहरी रुचि थी। वे कोतवाल थे। उज्जैन की सेंट्रल कोतवाली, जिसकी दूसरी मंजिल पर माधवरावजी का आवास था, सर सेठ हुकुमचंद का महल था। वहाँ सुख सुविधा की कोई कमी नहीं थी। माधवरावजी कर्तव्यपरायण और न्यायनिष्ठ व्यक्ति थे। पुलिस विभाग में रहकर भी उन्होंने हमेशा परले दर्जे की ईमानदारी का ही परिचय दिया।


वे महात्मा गाँधी के प्रसंशक थे और लोकमान्य तिलक के पत्र 'केसरी' के ग्राहक थे। वे बहुत अच्छे कथावाचक और दैनिन्दनी लेखक भी थे। उनका निधन मुक्तिबोध की मृत्यु के दिन ही हुआ।


माधवराव की पत्नी एवं मुक्तिबोध की माँ पार्वतीबाई ईसागढ़ (बुंदेलखंड, शिवपुरी) के एक समृद्ध किसान-परिवार की थीं। वे छठी कक्षा तक शिक्षित थीं। वे भावुक और स्वाभिमानी थीं। हिंदी के प्रेमचंद और मराठी के हरिनारायण आप्टे उनके प्रिय लेखक थे। मुक्तिबोध के निधन के कुछ ही समय बाद इनका भी देहांत हो गया था।


बड़े ही लाड़-प्यार और राजसी ठाट-बाट में पले थे गजानन माधव जो कि एक हठी और जिद्दी बालक के रूप में थे । इनकी हर जिद्द पूरी की जाती थी। इसी राजसी ठाठ को देखते हुए इनका नाम... बाबूसाहब भी पड़ा।

इनके पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे। अक्सर उनका तबादला होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी। सन 1930 में मुक्तिबोध ने मिडिल की परीक्षा, उज्जैन से दी और फेल हो गए। कवि ने इस असफलता को अपने जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने 1953 में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ किया और सन 1939 में इन्होने शांता जी से प्रेम विवाह किया। 1942के आस-पास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके तथा शुजालपुर में रहते हुए उनकी वामपंथी चेतना मजबूत हुई।

मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार 'तार सप्तक' के माध्यम से सामने आई, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया।

मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल 'एक साहित्यिक की डायरी' प्रकाशि‍त की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशि‍त हुआ।

ज्ञानपीठ ने ही 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' प्रकाशि‍त किया था। इसी वर्ष नवंबर 1964 में नागपुर के विश्‍वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा 1963 में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध' को प्रकाशि‍त किया था।

परवर्ती वर्षो में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन 'काठ का सपना', तथा 'विपात्र' (लघु उपन्यास) प्रकाशि‍त हुए। पहले कविता संकलन के 15 वर्ष बाद,1980 में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन 'भूरी भूर खाक धूल' प्रकाशि‍त हुआ और 1985 में 'राजकमल' से पेपरबैक में छ: खंडों में 'मुक्तिबोध रचनावली' प्रकाशि‍त हुई, वह हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है।

कविता के साथ-साथ, कविता विषयक चिंतन और आलोचना पद्धति को विकसित और समृद्ध करने में भी मुक्तिबोध का योगदान अन्यतम है। उनके चिंतन परक ग्रंथ हैं- एक साहित्यिक की डायरी, नयी कविता का आत्मसंघर्ष और नये साहित्य का सौंदर्य शास्त्र।

आपको बता दें कि भारत का इतिहास और संस्कृति इतिहास लिखी गई उनकी ही पुस्तक है। काठ का सपना तथा सतह से उठता आदमी उनके कहानी संग्रह हैं तथा विपात्रा उपन्यास है। उन्होंने 'वसुधा', 'नया खून' आदि पत्रों में संपादन-सहयोग भी किया।

आज इस नगण्य से मिलने का अवसर तो नही हम लेखकों को मगर उनकी रचनाओं को पढ़ने व उसे सीखने का अवसर जरूर मिल गया है।


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