कही आप भी तो पीपीडी से ग्रसित नही?

'औरत'..कितना कुछ समाया है इस शब्द में ,औरत वो ताकत है जो दुनिया के हर पीड़ा को सहन करते हुए भी खुद की जिंदगी में होने वाले तमाम उतार चढ़ाव को नकार देती और दिनभर के दिनचर्या में दौड़ लगाती है। लेकिन क्या ये सही हैं? अब देखिए ना अक्सर ये सुनने को मिलता है कि- औरत ही औरत की दुश्मन होती है लेकिन क्या यह मान लेना सही है। शायद नही,क्योंकि औरत औरत की दुश्मन भले ही क्यों ना बन जाए,लेकिन इसके पीछे भी पितृसत्तात्मक छवि जुड़ी हुई है। उस छाया की तरह जहाँ लांघ लपट लगती भी है तो वो औरतों के बीच ही सुलग पड़ती हैं। अक्सर महिलाएं हजारों बातों को शेयर करती है लेकिन खुद से जुड़ी दिक्कतों को दबा लेती है,जो आने वाले समय मे उन्हें घातक साबित होता है।भारत मे स्वास्थ्य संबंधी बातों पर महिलाओं की लापरवाही की एक लम्बी सूची है जो कि उन्हें लापरवाही के कटघरे में तब शामिल कर देता है जब वो तमाम यातनाओं, और पीड़ा से जूझ रही होती है। इसके बावजूद वो यह कह कर टाल देती है कि "मेरे साथ तो ऐसा कुछ नही हुआ,और कभी नही हुआ। "
आज का यह लेख इसी पर आधारित है - कि कैसे एक महिला किसी बीमारी से जूझती है और यदि वो अपनी बात शयेर कर भी लेती है तो उसे किस तरीके से घुमा दिया जाता है जो कि कही ना कहीं गलत साबित होता है। क्योंकि जरूरी नही कि आपके साथ नही हुआ तो वो किसी और के साथ भी नही होगा।


प्रतापगढ़ जिले की रहने वाली सीमा देखने मे तो समझदार और सुशील तो थी ही साथ ही पढ़ी लिखी भी थी,शादी के पहले वह प्राइमरी स्कूल में टीचर थी लेकिन शादी के बाद उसकी जिंदगी एक हाउस वाइफ के अलावा कुछ नही । यह बात उसे अक्सर तब चुभ जाती जब उसकी छोटी जिठानी यह कह कर ताने मारती अरे घर का सारा भार तो मर्दो पर है कुछ औरतों को तो चूल्हा के अलावा कुछ नही आता। यह सुनते सीमा को बुरा लग जाता जब भी वह इस बात को अपने पति से कहती तो उन्हें यह लगता कि अब सीमा को घर के कामकाज में समस्या होने लगी है। अक्सर इस बात पर दोनों के बीच कहा सुनी भी हो जाती मगर सीमा समझ चुकी थी कि कुछ भी बोलना ठीक नही। एक रोज उसने अपनी सास से हिम्मत जुटाते हुए कहा- माँ क्यों ना मैं भी नौकरी करू पहले तो मैं नौकरी करती ही थी,साथ ही घर को भी सम्भालती थी। भला अब क्या दिक्कत है। सीमा को लगा शायद सासू माँ उसकी बातों को समझ गयी क्यों कि उनका मुस्कुराता चेहरा अचानक से तब फिका पड़ा जब उन्होंने ताना मारते हुए यह कड़वे शब्द उगले - "हर चीज में कॉम्पटीशन है यहां तो! बच्चो में कॉम्पटीशन क्यों नही कर लेती बहू! अरे उसकी तो सरकारी नौकरी है एड़ी चोटी एक कर के इस घर को पैसे देती है तो रसोई से दूर है। भला तेरी कौन सी सरकारी नौकरी है? ऊपर से तू ये तो नही सोचती की शादी को इतने साल हो गए फिर भी तू एक बच्चे तक ना दे सकी इस घर को।अरे बाँझ घर के भीतर रहे वही बेहतर है। बाहर जाकर क्या हमारे घर की इज्ज़त उछालनी है ऊपर से तू कितना कमा लेगी जो इस घर मे दे लेवेगी और "...!

माँ बस करिए। मुझे नौकरी नही करनी। मुझे लगता था आप शायद मेरे मन को समझेंगी मगर मैं गलत साबित हुई आप तो अंधेरे घर में रोशनी के बजाए ताने मारने लगी कहि की बात कही पहुँचने से बेहतर है कि मैं घर पर ही ठीक हूँ। इतना बोलते हुए सीमा का गला रुंध गया।

ये सुनते सासु माँ सीमा को घूरते हुए अंदर चली गयी। वक़्त बीतता गया और सीमा चिड़चिड़ेपन की शिकार हो गयी। इन्ही बीच उसे  प्रेग्नेंसी की खबर ने थोड़ा खुशी तो दिया मगर बची हुई खुशियों को सासु मा ने तब तोड़ दिया जब उन्होंने डॉक्टर के आगे यह कहा कि गर्भ में पलने वाला बेटी है या बेटा?

डॉक्टर ने उस समय खारिज कर दिया बताने से लेकिन सीमा की सांस ने सीमा पर तब तक बहुत कदर मेहरबानी प्यार मोहब्बत लुटाया जब तक उन्हें ये नही पता था कि गर्भ में पलने वाला नही ,पलने वाली हैं। यह खबर लगते ही सास का रुख बरताव बिल्कुल रूखा होता चला गया। ये देखकर सीमा भीतर ही भीतर वापस से टूट गयी। आएदिन की बोली आवाजा, ताने सीमा को भीतर ही भीतर तोड़ रहे थे। उसकी सास नही चाहती थीं कि सीमा एक बेटी को जन्म दे। मगर सीमा उसे जन्म देना चाहती थी क्योंकि बहुत मुश्किल से उसका गर्भ ठहरा था। बहुत सालों के बाद वो माँ बनने के एहसास को जी रही थीं। भले ही वो उस पल को खुशी से जी नही पा रही थी मगर वो खुश रहने का प्रयास निरन्तर करती। दिन बीतता गया और नौ माह का संघर्ष पूर्ण हुआ। सीमा भीतर ही भीतर चिड़चिड़ापन और उदासी में जीना शुरू कर दी। हर रोज के ताने उसे कैक्टस के पौधे समान चुभने लगे। कभी कभी उसे आत्मदाह कर लेना ही सही लगता। क्योंकि जिस समय उसे सबके साथ कि जरूरत थी वैसे समय मे वो बिल्कुल अकेली थी। क्योंकि ना तो उसे बच्चे की देखभाल कैसे करनी होती है यह पता था,ना ही खुद का ख्याल कैसे रखना है ये पता था। बात बात पर लोगो के ताने उसे कांटो के भांति चुभ रहे थे। जिससे सीमा कई बार अपने पति से कहने की कोशिश की मगर निराशा ही हाथ आया। सीमा का धैर्य टूट रहा था। उसने बहुत हिम्मत के साथ डॉक्टर को बताया कि उसके साथ कुछ यूं होता है की वो आत्मदाह कर ले  या उलझ पड़े,या कभी कभी तनाव इस कदर होता है कि लगता है कि बेटी और खुद को जला दू। घर वालो के ताने जीने नही देते,जिस कारण ना मुझे भूख लगती ना खाने का मन । इसी  कारण मैं थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई हु।  मैं अपने आप को संभाल नहीं पाती ऊपर से बच्चा बहुत गुस्सा आता है। मैं सबकी चिंता करती थीं,ऑफिस से लेकर घर तक की चिंता।मगर इस दौरान मुझे तनावपूर्ण जीवन जीने नही देता।यह सब सुनकर डॉक्टर ने सीमा को समझाया यह तनाव सामान्य डिप्रेशन नही बल्कि इसे पोस्टपार्टम डिप्रेशन कहते है। इससे तुम्ही नही भारत मे हर साल इससे एक करोड़ महिलाएं जूझती है। यह अवसाद प्रसव के बाद ज्यादा हावी हो जाते है जब मन मे चिड़चिड़ापन, रोने की इच्छा,चिंता और बच्चों को लेकर सौ तरीको के सवाल जब मन मे पैदा होते है तो मूड स्विंग हो जाता है। ज्यादातर यह मामले पहली बार मां बनने में होती है क्योंकि  पहली बार मां बनने पर होने वाले सारे एहसास नए होते हैं उस पर इस तरह के सवाल आपके मन में कई आशंकाएं भी पैदा करते हैं। लोगो के कई तरह की बाते और वाद-विवाद, मन को रुष्ट कर देता है जिससे यह बीमारी घात कर जाती हैं।

सीमा यह सुनते उदास हो गयी उसने दबे मन से पूछा- इसका क्या कोई इलाज नही?

डॉक्टर- बिल्कुल है मगर उसके लिये पारिवारिक सहयोग की जरूरत है। जिससे इलाज समय पर पूर्ण हो सके।

सीमा रूक कर बोली- यह पहला अनुभव मिला मुझे जहां एक महिला एक महिला की पीड़ा को समझ पा रही अन्यथा घर पर तो सब इसे बहाना कहते है। जिसे उन लोगो को समझा पाना बेहद मुश्किल है। क्या मैं इससे कभी बाहर नही निकल सकती?

आप बिलकुल निकल सकती है मगर तब जब आप परिवार के साथ खुशी से रहिए उनका स्नेह व सहयोग पूर्ण हो। क्योंकि इसके लिए दवाइयों की जरूरत नहीं होती।लेकिन, अगर लक्षण बढ़ जाएं तो इलाज जरूरी हो जाता है।बीमारी बढ़ने पर नींद नहीं आती, भूख नहीं लगती, मरीज़ अपने आप में गुम रहता है और उसे आत्महत्या के ख्याल आने लगते है।यही बीमारी का अगला चरण है जिसे पोस्टपार्टम डिप्रेशन कहते हैं।इसमें कई बार महिला अपना बच्चा संभालना भी छोड़ देती है,जो बच्चे के लिए ख़तरनाक साबित होता हैं।इसमें महिला अपने बच्चे के लिए बहुत डर जाती है।उसे हर चीज़ में ख़तरा महसूस होने लगता है।कई बार वह अपने बच्चे को किसी को हाथ भी नहीं लगाने देती।
हालांकि, ऐसा बहुत कम मामलों में होता है। डॉक्टर ने सीमा और उसके पति को समझाया कि पीपीडी क्या है और इसे होने वाले लक्षण और उपाय क्या है।

सामान्यता , सीमा जैसी तमाम महिलाएं आज जाने अनजाने में पीपीडी का शिकार हो रही,जो उनके शरीर के लिए नुकसानदेह है। अवसाद से तो हम सब वाकिफ है मगर पोस्टपार्टम डिप्रेशन यानी अवसाद से बहुत कम ही लोग जागरूक है। आइए जानते है कि इससे कैसे बाहर निकला जाए।
पीपीडी क्या है वो तो आप इस कहानी से समझ गए होंगे। लेकिन हर चीज का अंत तय है इसी तरह इस बीमारी से भी बाहर निकलने का भी तरीका है वो है परिवार का पूर्ण सहयोग।
● महिला को महिला गतिविधियों की पूर्ण जानकारी व अनुभव।
● योगा व टहलना जिससे मूड स्विग ठीक हो।
● बच्चे की देखभाल करने में मदद करें।
● झाड़फूंक से दूर रहे। समय पर ही डॉक्टर से परामर्श ले।
● अपनी बात बेबाक हो कर डॉक्टर से कहे।
● संतुलित और पौष्टिक आहार लें।
● खुद को समय दे, खुश रहने के लिए खुद को पैम्पर करे।
●पार्टनर के साथ दूरी न बनाएं बल्कि उन्हें भी जिम्मेदारियों का अहसास करवाएं।
●रिश्ते में प्यार बनाए रखने के लिए कुछ वक्त पति के लिए भी निकालें।
● अपनी परेशानियां और समस्याएं पति के साथ सांझा करें।
●प्रेग्नेंसी के बाद भी शरीर में कमजोरी आ जाती है जिसे पूरा करने के लिए हरी पत्तेदार सब्जियां, फल, अंकुरित अनाज, दूध, दही, पनीर आदि खाएं।
●व्यायाम, वर्कआउट,योग, मेडिटेशन का सहारा लें।
●तनाव की वजह से बच्चे को अनदेखी न करें,बल्कि बच्चे भगवान का रूप होते है आप उनमें ही अपनी खुशी ढूढें।
●थकावट से चिड़चिड़ापन, मानसिक परेशानी और शारीरिक कमजोरी आने लगती है,इसके लिए शरीर को आराम भी दे।

डिप्रेशन और पोस्टपार्टम डिप्रेशन के बीच अंतर जानना बेहद जरूरी है क्योंकि दोनों स्थितियों का अंतिम पड़ाव एक जैसा ही है। डिप्रेशन और पोस्टपार्टम डिप्रेशन में महज एक अंतर होता है। वह है पोस्टपार्टम डिप्रेशन प्रेगनेंसी से जुड़ा होता है और यह हॉर्मोनल बदलाव, वातावरण में बदलाव, भावनात्मक बदलाव और जेनेटिक बदलाव जैसे विभिन्न पहलुओं के कारण होता है। जबकि डिप्रेशन के साथ ऐसा नहीं है।हालांकि, जो महिलाएं पहले भी डिप्रेशन या मानसिक बीमारियों से गुजर चुकी होती हैं, उनमें पोस्टपार्टम डिप्रेशन का खतरा अधिक होता है।
●डिप्रेशन दिमाग पर बहुत असर डालता है और यह मरीज के मानसिक स्वास्थ्य पर खतरा हो सकता है।
●मरीज में मोटापा, हार्ट अटैक और क्रॉनिक बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है।
●पोस्टपार्टम डिप्रेशन से निपटने के लिए -साइकोथेरेपी, काउंसलिंग, मेडिटेशन और अन्य कई तरह के थेरेपी से बाहर निकला जा सकता है।

पीपीडी पोस्टपार्टम डिप्रेशन एक गंभीर बीमारी है, जिसे नजरअंदाज करना सही नही है। इस स्थिति की पहचान जल्दी हो जाने और तुरंत इलाज शुरू कर देने से डिप्रेशन के लक्षणों के क्रॉनिक डिप्रेशन में बदलने की संभावना से बचा जा सकता है। इस स्थिति से अकेले जूझने के बजाय, इसके बारे में परिवार,पति व दोस्तों और अपने डॉक्टर से बात जरूर करे। जिससे समय रहते आप स्वस्थ रहे। 

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