Chipkoo Movement


" क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
      मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार। "

चिपको आन्दोलन एक पर्यावरण-रक्षा का आन्दोलन है। आज ही के दिन इसकी शुरुआत हुई । यह भारत के उत्तराखण्ड राज्य में किसानो ने वृक्षों की कटाई का विरोध करने के लिए किया था। वे राज्य के वन विभाग के ठेकेदारों द्वारा वनों की कटाई का विरोध कर रहे थे और उन पर अपना परम्परागत अधिकार जता रहे थे।     
यह आन्दोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले में सन 1973में प्रारम्भ हुआ। एक दशक के अन्दर यह पूरे उत्तराखण्ड क्षेत्र में फैल गया।
                 चिपको आन्दोलन की एक मुख्य बात थी कि इसमें स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया। इस आन्दोलन की शुरुवात 1973 में भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा, चण्डीप्रसाद भट्ट तथा श्रीमती गौरादेवी के नेत्रत्व मे हुई थी।दरअसल,उत्तराखंड के जंगलों की लकड़ियों की उत्तम क्वालिटी ने विदेशी कंपनियों को भी यहां आकर्षित किया। जब लकड़ियों की कटाई शुरू हुई तो स्थानीय लोगों ने इसका विरोध भी करना शुरू किया। क्योंकि जंगल की लकड़ियां यहां के लोगों के रोजी-रोटी का आधार थीं। यहां के लोग भोजन और ईंधन दोनों के लिए ही जंगलों पर निर्भर थे। लड़कियों की कटाई का असर पर्यावरण पर भी पड़ा। 1970 में चमोली और आसपास के इलाकों में भयानक बाढ़ आई। लोगों ने इसका दोष लकड़ियों की अंधाधुंध कटाई, पर्यावरण ह्रास को दिया। इसके बाद इस समस्या पर गांधीवादी और पर्यावरणवादी चंडी प्रसाद भट्ट की नजर पड़ी। उन्होंने 1973 में मंडल गांव में चिपको आंदोलन की शुरुआत की। रोजी-रोटी और जमीन की समस्याओं से त्रस्त लोग जल्द ही इस आंदोलन से जुड़ गये। भट्ट गांव वालों के साथ जंगल में वहां पहुंचे जहां लकड़ियों की कटाई हो रही थी। लोग पेड़ों से लिपट गये और जंगल में पेड़ कटने बंद हो गये। आखिरकार सरकार को इस कंपनी का परमिट रद्द करना पड़ा। जल्द ही यह आंदोलन उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में भी फैल गया।
इस आन्दोलन ने 1980 में तब एक बड़ी जीत हासिल की, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने प्रदेश के हिमालयी वनों में वृक्षों की कटाई पर 15 वर्षों के लिए रोक लगा दी। तब से आज तक हर वर्ष आज के दिन चिपको आंदोलन मनाया जाता हैं।
गूगल ने भी अपने डूडल पर चिपको आंदोलन का मैसेज दिया। जिसमे उसने बताया कि असल आंदोलन का इतिहास और पुराना है। 18वीं सदी में राजस्‍थान के बिश्‍नोई समाज के लोगों ने पेड़ों को गले लगाकर अवनीकरण का विरोध किया। केहरी समूह के पेड़ों को बचाने के लिए अमृता देवी के नेतृत्‍व में 84 गांवों के 383 लोगों ने अपनी जान दे दी।
शायद एक बार फिर पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए ,तेजी से पेड़ कटाई को रोकना होगा। एक बार फिर इस आंदोलन की शुरुआत करने का  समय आ गया हैं। तेजी से पेड़ो की कटाई,जंगलों का नष्ट होना देखा जाए तो इसका ग्लोबल वार्मिंग पर  तेजी से बुरा असर पड़ रहा। क्यों न हम भी एक कदम उठाए ओर इस मुहिम की शुरुआत करें।

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