जर्नी ऑफ घूँघट

घूँघट.....


एक समय की बात है जब घूँघट लेने का चलन बड़ी तेजी से दौड़ लगा रहा था,या यूं कहें कि रिवाज़ो में गोते लगाने का दौर। 


पहले के समय मे घूँघट का रिवाज हमारी संस्कृति थी। लोग उसे निभाने में जुटे रहते थे। आज उसी घूँघट का अंत इन मॉडर्न वेस्टर्न महिलाओं ने तोड़ दिया। 


एक समय था जब अपने से बड़ो  के आगे आपको गर्दन तक घूँघट का आड़ लेना होता था। कुछ समय बिता रिवाज़ो में परिवर्तन होगया,लोगो ने घूँघट को चेहरे तक लाने की कोशिश की जिसमे वो सफल हुए। 


कुछ समय और बिता जब रिवाज़ो के इस भारी पलड़े को नयन तक टिका दिया। कुछ समय और बिता ओर घूँघट की इस जर्नी को सर का ताज बना दिया। लेकिन कहते है न ताज बहुत दिनों तक साथ नही रहता कभी न कभी ताज सर से हट ही जाता हैं। 


आख़िर वो पड़ाव आ ही गया,मॉडर्न जमाने ने इस आड़ का अंत ही कर दिया। जो अभी तक सर का ताज बने फिर रहा था आज वो " फैशन का घूँघट " हो गया। 


सेल्फ़ी लुक ,इंडियन ड्रेस साड़ी में हैस टैग से उस सर के ताज को जोड़ दिया। इस तरह से आज घूँघट प्रथा का अंत तो नही लेकिन अंत करने की शुरुआत हो चुकी है। अब महिलाएं घूँघट वाले सफ़र से आजाद है। 


लेकिन पूरे तरह से नही क्योंकि इस देश मे अभी भी कुछ ऐसे लोग है जो इस प्रथा को पूर्ण रूप से निभाते है। कुछ ऐसे लोग भी है जो दिखावा में इस प्रथा को निभाते हैं। कुछ ऐसे भी है जो फैशन के लिए इसका सहारा लेते है। 


आइये जानते है कैसे शुरू हुई घूँघट की शुरुआत?


हमारे भारतीय समाज में महिलाओं को हमेशा समाजिक परंपराओं को निभाते और मानते हुए देखा गया है, जैसे कि वे हमेशा ही पारंपरिक कपड़े, और गहने, पहनती हैं, माथे पर बिंदी लगाती हैं और सर पर घूंघट लेती हैं।


आपको बता दे कि घूँघट का अस्तित्व मध्यकालीन के बाद से आया ,उस वक़्त इसकी आवश्कता थी लेकिन समय के साथ इसे महिलाओं के ऊपर थोपा जाने लगा।आपको यह जान के आश्चर्य होगा कि हिन्दू धर्म ग्रंथों में महिलाओं को पर्दे में रहने का कोई उल्‍लेख नहीं है। यहां तक कि पूजा के समय भी सर पर घूँघट रखना जरूरी नहीं।


लेकिन वही यह भी देखने सुनने व पढ़ने को मिलता है कि....पर्दा प्रथा मुस्लिम शासन काल में मुस्लिम सैनिकों से महिलाओं की रक्षा के लिए आरंभ हुई। लेकिन यह सच नहीं है। भारत में पर्दा प्राचीन काल से है। दुर्भाग्य तो यह है कि अनेक इतिहासविदों ने संस्कृत, पालि या प्राकृत ग्रंथों में झांके बिना ही अपना मत बना लिया।वाल्मीकीय रामायण को सनातन धर्म के अनुयायी अपना एक धर्मशास्त्र मानते है। इस ग्रंथ में कहा गया है कि जब लंका विजय के बाद सीताजी अशोक वाटिका से विभीषण द्वारा राम के पास लाई गईं, तब सीता के दर्शनार्थ सैनिकों की भीड़ को दूर हटाने के प्रयत्नों पर नाराज होकर राम ने कहा था -व्यसनेषु न कृच्छ्रेषु न युद्धेषु स्वयंवरे। न क्रतौ नो विवाहे वा दर्शनं दूष्यते स्त्रिया:।। (वाल्मीकीय रामायण, भाग- 2, सर्ग 114)अर्थात् विपत्ति काल में, शारीरिक या मानसिक पीड़ा के अवसरों पर, युद्ध में, स्वयंवर में, विवाह में और यज्ञ में स्त्री का दिखाई देना या दूसरों की दृष्टि में आना दोष की बात नहीं है। यहां प्रसंग घूंघट का है क्योंकि घूंघट का प्रश्न उस समय भी उपस्थित हुआ था जब रावण की मृत्यु के बाद महारानी मंदोदरी तथा दूसरी रानियां पैदल चलकर विलाप करती हुईं युद्धभूमि में पहुंची थीं। महारानी मंदोदरी कहती हैं-दृष्टा न खल्वभिक्रुद्धो मामिहानवगुण्ठिताम्।निर्गतां नगरद्वारात् पद्भ्यामेवागतां प्रभो।। (वाल्मीकीय रामायण, भाग-2 , सर्ग 111) अर्थात् हे प्रभो, आज मेरे मुंह पर घूंघट नहीं है, मैं नगर द्वार से पैदल ही चलकर यहां आई हूं। इस दशा में मुझे देखकर आप क्रोध क्यों नहीं करते? इतिहास के दर्ज पन्नों से हम यह कह सकते है कि सीता और मंदोदरी के उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस समय ऋषि वाल्मीकि ने अपनी रामायण की रचना की थी, उस समय भारत में, विशेषकर उच्चवर्गीय महिलाओं में पर्दा प्रथा प्रचलित थी। यह काल ईसा पूर्व तीसरी या चौथी शताब्दी रही होगी। अब सवाल तो ये उठता है कि क्या सुरक्षा के लिए लिया जाता है घूँघट??आख़िर बड़ा सवाल तो यह है कि भारतीय परंपरा में घूंघट कब और कैसे आया?? क्या सनातन समय से यह परंपरा चली आ रही है या फिर कालांतर में यह प्रचलन बढ़ा है? या वास्तव में घूंघट हिंदुस्तान पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारियों की ही देन है ??


क्या घूँघट सुरक्षा मद्देनजर रखा जाता रहा???


कुछ धर्मो में पर्दा रखना इसलिए जरुरी था,क्योंकि यह माना जाता था कि अगर महिलाएं खुद को पर्दे में रखेंगी तो वे अन्‍य पुरुषों से सुरक्षित रहेंगी। महिलाएं केवल अपने पति या पिता के सामने ही बेपर्दा हो सकती हैं। असल मे तो महिलाओं को पर्दे में रखने का रिवाज मुस्लिम शासन के बाद से हुआ। भारत में राजपूत शासन के दौरान महिलाओं को आक्रमणकारियों के बुरे इरादों से बचाने के लिए उन्हें पर्दा में रखा जाता था। इसका सबसे बड़ा उदहारण हैं चित्तौड़ की रानी पद्मिनी जिनकी खूबसूरती को देख कर अल उद दीन खिलजी ने उन्हें पाने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण कर था। लेकिन रानी पद्मिनी ने जौहर का प्रदर्शन किया और दुश्मन के चंगुल से बचने के लिए खुद को आग के हवाले कर दिया। तब से भारत में महिलाओं को पर्दे में रखने का रिवाज शुरू हुआ।


लेकिन आज के युग ने इस कुप्रथा जैसी सोच का अंत कर दिया है,जो वक़्त के हिसाब से जरूरी भी था। समय के साथ बदलाव जीवन को हमेशा नई ऊर्जा से जोड़ता है। लेकिन मन मे एक स्त्री होने के नाते सवाल कौंध रहा क्या घूँघट हमारे शरीर को ढकने से बुरी नजरों से बचने के लिए ही जुड़ा था। क्या आज इसीलिए महिलाएं सुरक्षित नही ???आज के दौर में हर रोज हो रही घटनाएं घूँघट हट जाने से हो रही????आप जरूर बताएं। 


मेरे ख्याल से इस कुप्रथा का अंत तो सही है लेकिन आज के समय मे हो रही घटनाएं लोगो की हवस से जुड़ी हुई है। क्योंकि जन्मी हुई बच्ची को एक माँ कोख़ में ही घूँघट की आड़ लेना नही सीखा सकती। 


शायद अच्छा हुआ घूँघट की जर्नी समाप्त हो रही। नही तो घूँघट के आड़ में भी महिलाएं सुरक्षित नही थी। न ही उनके लब्ज़ आवाज उठाने के लिए आज़ाद। 


मगर आज हम अपने लफ़्ज़ों को खोलने के लिए आजाद है आखिर क्यों हम छुपने का सहारा ले। अब वक्त है घूँघट को उठाकर जवाब देने का। उस हर स्त्री के पीड़ा को दूर करने का जो उस घूँघट में चुप चाप सहती रही। शायद वक़्त के साथ घूँघट का भी अलविदा हो रहा......



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