उफ़्फ़फ़ ये इश्क़ बांवरा सा मन!

उफ़्फ़फ़ ये इश्क़ बांवरा सा मन!

बेख़ौफ़ -सी मदहोश सी रेशमी जुल्फों वाली

एक गहरी भूरी आंखों वाली निर्भिक लड़की,

उन ऊंचे पहाड़ों नीले अम्बर के साथ गुफ्तगू करती हुई चंचल अदाएं बिखेरे

निडर हो उन शान्त वादियों में खो चुकी हैं,

अचानक कोई ख्वाब सा दिख गया उन हसीन वादियों के बीच मुस्कुराते हुए

एक अजनबी कुछ अपनेपन- सा,याद नही क्या क्या सोचा था सारे सपने भूल गयी

उनके ख्वाबों से जब निकली अपना ही मंजर भूल गयी

ढलते सूरज चमकती चट्टाने और....वो पुरुष उफ़्फ़ तेरे इन सपनों की गलियों से जब गुजरी अपनी- ही मंजिल भूल गयी।


उजले उजले कपड़े पहने

तुम ख्वाबों के उन हसीन वादियों में यू मिलते हो,

जैसे लगता हो फाल्गुन

जब तुम अपनी मुस्कान से,

मेरे इन सपनों में इतने रंग भरते हो

तेरे इन सपनों की गलियों से जब गुजरी,

अपना ही घर भूल गयी,अपना ही मंजर भूल गयी

उफ़्फ़,कही ये प्यार है या मीठी-सी टकरार!


कल्पना ही तो संसार का नियम है

हे प्रियतम मैं अपनी बन्द आंखों से वो बुन रही जिसकी कल्पना मात्र मैं विचलित हूँ

तुम्हारी आँखों मे वो देख रही जहां मन मौसम सा उमड़ रहा और मुस्कान समुंदर के भाँति गहरा

हे प्रियतम कह लेने दो वो सबकुछ जो

ह्रदय की अनकही बातें और कल्पनाओं की पतंग कही दूर तुम्हारे संग उड़ान भर रही

ये भावनाओं का संगम और ये भीनी मुस्कान ही औरतों को समझने का सरल रास्ता है

हे हमसफ़र कह दो इन आँखों ही आँखों मे जो मेरी मुस्कान और कल्पनाओं का भंवर इन वादियों में उमड़ रहा

ये सूरज की किरणें और ख्वाबों का भंवर उफ़्फ़फ़ ये इश्क़ बांवरा सा मन!


कल्पनाओं के डोर में बंधने वाले उस हसीन अजनबी के आँखों मे गुम हो गले लग अनगिनत जाल बुनती हूँ

मोहब्बत एक अहसासो का भवर है जहां मेरे ख्वाब हिलोरें मार रहे,

ये पहला इश्क़ और जज्बात मुझे मेरे मंजर तक पहुँचने नही दे रहे

हे प्रियतम ठहर जाओ यही मेरे भावनाओं के गोते में ,

ये इश्क़ और बांवरा सा मन इससे पहले कभी चंचल नही हुए

कर लेने दो कैद मुझे इस लम्हे को जो आज से पहले कभी ना हुआ

हवाओ की गुदगुदाहट से आंखे खुल जाती है सपने अधूरे भले है मगर
उन्ही वादियों के बीच वो अजनबी कही दूर तलक बैठ मुस्कुरा रहा

ये गहरी भूरी आंखों वाली लड़की तय करती है दिलो जज्बात को कह लेने का की किस तरह वो अजनबी मेरे मोहब्बत का अंश बन गया।

वो दमक रही थी धड़कने तेज हो रही थीं ये बांवरा सा मन तमाम परिचय दे रहा था भीतर ही भीतर

कितनी अजीब सी ये घड़ी है जहां खुद का परिचय भी भारी है

ये दोस्ती मोहब्बत नही किया हमने कभी किसी से ना जाने कैसे तुमसे हो गयी बेजुबां

कैसे बताऊ तुम्हे कितने खास हो तुम,इन हसीन वादियों और मेरे कल्पनाओं के भंवर में कितने खास हो तुम

भले ही ये दिन आम सा क्यों ना हो मगर ये शाम बेह्द खास है उन चट्टानों पर कई गुफ्तगू कर लिया हमने कुछ कहना कुछ सुनना था हमे

मगर अफसोस नही ना इल्म ये दो मिलन इन हसीन वादियों का सिर्फ एक भावनाओं का मंजर है

हे प्रियतम आँखों मे क्या रखा है मन तो सब देखता है ना जाने क्यों दुख नही
एक खुशी थी उनसे मिलने की

वो अजनबी अब अपना सा है उफ़्फ़फ़ ये मन बांवरा -सा है!




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