घुमक्कड़ लड़कीं की सारनाथ डायरी

हेल्लो फ्रेंड्स,
कैसे हो आप,अरे क्या हुआ आपकों..!अच्छा तो आपकों मज़ा आ रहा है मेरे इस नए नाम पर?चलिए चलिए..कोई नहीं; अब आपको बता ही देती हूं कि यह चर्चित नाम मुझें बनारासियो के प्यार ने दे दिया है। ख़ैर बहुत हुई बाते अब चलते है अपने अगले यात्रा पे,तो आप तैयार है न !




                            वेलकम टू सारनाथ

दिन बुधवार घड़ी में लगभग 9 बज रहे थे,बिस्तर से आंखे खुली तो बस सीधे मोबाइल पे हाथ गया। बहुत देर तक मोबाइल को देखती रही और प्लानिंग करने लगी कि कहा चलूं आज..!

कुछ नए खोज के लिए? तभी खिड़की से रिमझिम फुहारों वाली बारिश को देख अचानक से सारनाथ जाने का मूड बन गया...तो फिर क्या बस झटपट तैयार हो के निकल पड़ी अपने इस अगले सफ़र पे!

इसे पहले के पल को मैंने दर्ज नही किया है यहाँ मगर जल्द ही उन पलों को भी आपके समक्ष जरूर रखूंगी।

यू तो बाबा की नगरी काशी अपने मे अनेको बातों को समेटे हुए रहस्यमय है। वही भगवान बुद्ध की तपस्थली भी अपने मे कम नही।

वाराणसी कैंट से सारनाथ तक का सफ़र महज 9.6km। बस जब दिल ने दिमाग को ऑडर दे ही दिया तो चलना तो पड़बे करी।बस बैठ गयी सीधे सारनाथ की ऑटो पर कैंट से।

वैसे आपको बता दु कि अधिकांश ऑटो सीधे सारनाथ नही जाती। आपको ऑटो दो बार बदलना पड़ेगा। मतलब कैंट से पांडेयपुर ,फिर वहां से सारनाथ।

इस तरह करते करते बज चुके थे 11.30 । मौसम के मिजाज ने भी आज ज़िद कर ही ली थी कि तुमको आज इस यात्रा पे ज़रा भी संकट नही आएंगे। वैसे भी नही आते हैं क्योंकि मैं गूगल मैप के साथ चलना पसन्द करती हूं...।
लोकेशन ट्रेस होना शुरू हुआ, तभी मेरी नज़र सारनाथ के गोल्डेन टेम्पल पर पड़ी।

मैं आपको बता दु की मैं इससे पहले भी कवरेज दौरान पर सारनाथ जा चुकी हूं। मगर उस समय उतना घूमना न हुआ।
सारनाथ में गोल्डेन टेम्पल...ये कहा है। मैंने तपाक से ऑटो वाले भैया से पूछा; " भईया ई बतावा की ई सारनाथ में गोल्डेन टेम्पल कहा बा" उनका जवाब नहीं पता हमके दीदी..! क्या आपको नही पता?

दो मिनट को सारा दिमाग गोल्डेन टेम्पल में लग गया। कि मुझे यहाँ जाना है तो जाना है। मैंने दुबारा ऑटो वाले भैया से कहा ; का मालिक तोहे ई मन्दिर नही पता जरा देखा एहे,लगत हव जैसे नेपाल में हव.!

अरे हमके नाही पता बा। चला कोई नाही! हम ढूंढ लेब।
सारनाथ लगभग पहुंच चुके थे, सबसे पहले चौखंडी स्तूप पड़ा...मगर दिमाग तो गोल्डेन टेम्पल में फसा था। सारनाथ पहुँच गयी लगभग 12 : 30 हो रहे थे।

वहाँ उतरते मैंने ऑटो वाले भैया को पैसे दे एक स्थानीय निवासी से इस मंदिर की चर्चा की तो उनका जवाब ,मेरे दिल को तोड़ने के बराबर था।

क्या ये कौनसी मन्दिर है?ऐसी कोई मन्दिर नही है बिटिया? अरे लड़कीं जात हो ,कहे अकेले घुमत हऊ।

तब मैंने उन्हें बताया कि मैं लड़कीं तो जरूर हु बाबा मगर एक पत्रकार हु,पत्रकार होने के साथ ही साथ मैं एक रिसर्चर भी हु। काशी के इतिहास में दर्ज मंदिरो की मैं खोज कर रही हूँ।

अच्छा,अच्छा। बिटिया ई हमके मालूम न बा ,हा ई हा से आगे बढ़ बु तो तोके एकठो मन्दिर दिखाई देई। उस समय मैं सारनाथ के मूलगंध कुटी से आगे थी। मैंने उनके बताए पथ पर पदयात्रा पर निकल पड़ी। वहां पहुँच मैंने देखा कि वो गोल्डन नही बल्कि चाइनीज बुद्धिस्ट मन्दिर था।




खैर जब पहुँच ही गयी तो देखना भी जरूरी था। क्योंकि इसे पहले भी मैं ये मन्दिर नही देखी थी। एक ऐसी जगह जहाँ बेह्द शांति,मन को आंतरिक सुख प्राप्त हो रहा हो।
हर तरफ हरा भरा मानो महसूस हो रहा,शांत प्रकृति की गोद मे हू।

ठंडी हवाओं में रिमझिम बारिश एक अलग ही मजा दे रही थी। यह मन्दिर जितना बाहर से छोटा क्यूटो लग रहा था उतना ही अंदर से।मन्दिर की सुंदर इमारत जो कि  वैशाली रेस्तरां के पास एक अलग लेन में स्थित है और इसकी स्थापना 1 9 3 9 में हुई थी, जबकि गेट और कंपाउंड दीवार का निर्माण 1 9 52 में हुआ था।

इमारत लाल और पीले रंग की चमकदार छाया में है और इसमें सुंदर दिखने वाले चीनी डिजाइन हैं।दीवारों पर लटकते चीनी लालटेन जिसपे ड्रैगन के चित्र अंकित हैं और बहुत सारे कबूतर बहुत शांत वातावरण और छोटे बगीचे में अशोक का स्तम्भ ,उसके दूसरी ओर भगवान बुद्ध की मूर्ति। जहाँ तादाद में दियों के कतार पहले से लगे हुए थे।



चीनी मंदिर के अंदर विभिन्न आकारों की विभिन्न मूर्तियां हैं और वातावरण बहुत कमजोर है, भले ही मंदिर को कम किया जा सके।महान राजा हर्षवर्धन के समय 7 वीं शताब्दी ईस्वी में चीनी विद्वान ह्यूएन-त्संग द्वारा उठाए गए मार्ग का एक बड़ा नक्शा है।






चीनी बौद्ध मंदिर की एक महत्वपूर्ण विशेषता हिंदी, अंग्रेजी और चीनी में एक विशाल बोर्ड पर फोटो और लेखन-अप के माध्यम से बुद्ध के जीवन का प्रतिनिधित्व है।यह तीर्थयात्रियों की अनुपस्थिति में सरनाथ की अधिकांश जगहों पर मौजूद है, इसकी पूरी जानकारी देता है।






आपको बता दे कि बौद्ध धर्मावलम्बियों के चार बड़े तीर्थों (लुम्बिनी, बोधगया और कुशीनगर) में सारनाथ भी शामिल है। क्योंकि यह भगवान बुद्ध की पहली उपदेश स्थली है।जहाँ ज्ञान प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश यहीं दिया था। इस घटना को धर्म चक्र परिवर्तन कहा जाता है।

यहाँ से निकलने के बाद दिमांग ने एक बार फिर गोल्डेन टेम्पल की जिद्द ठान ली,तो बस चल दी गूगल मैप के माध्यम चलते चलते मैं थोड़ा गांव जैसे एरिया में पहुँच गयी। थोड़ाआगे और बढ़ी दो पल हुआ कदम पीछे की ओर ले चलूं...क्यों कि गांव घर गाय,गोबर,बारिश से सड़क की भी हालत बदतर थी। फिर गूगल मैप को देखी तो वहाँ से मात्र तीन मिनट का रास्ता दिखा रहा था। मैंने भगवान बुद्ध को याद करते हुए,कदमो को तेज कर आगे बढ़ी। चलते चलते ,एक चौड़ी सी सड़क आई,ओर खेत। हर तरफ सन्नाटा।

लगा ये कहा आ गयी। कही मैं, नही नही सब ठीक है, मैंने फिर गूगल मैप देखा तो एक मिनट का रास्ता।दिख रहा था। तभी मुझे गोल्डेन टेम्पल का गेट नजर आया सच बताओं तो मानो भगवान मिल गए हो इतनी ख़ुशी।

पहले तो उसकी खूब फ़ोटो वीडियो ली। बाद में अंदर गेट पर एंट्री कर अंदर घुसी।तो सच किसी जन्नत से कम नही।

मुँह खुला का खुला रह गया वाओऊ.....ये इसी बनारस में है???ओह एम जी....? मानो किसी दूसरे शहर देश मे हू। क्यूटो ? वाह क्या बात है।




बस फिर क्या शुरू हुई आपके तक पहुँचने के लिए ये अद्भुत क्यूटो ओर उतार ली वीडियो सहित। आपको बता दु की यहाँ बौद्धिस्ट की शिक्षा दीक्षा दी जाती है। छोटे छोटे बच्चे जो कि नेपाल ,काठमांडू, तिबत से आये हुए है।




इन्हें देख मुझें एक ओर हौसला मिला। भगवान बुद्ध की अंदर विशाल  सी मूर्ति जो आपको भी आकर्षित करेंगी।




क्यों है न कमाल की जगह ...आपको मैं यहाँ का लिंक दे रही हूँ  https://youtu.be/xVc3QG-w7u0


आप इस लिंक के माध्यम पूरा मजा ले सकते है। मुझे ये जगह इतनी पसन्द आई कि मुझे यहाँ 3बज गए पता ही नही चला। फटाफट से बैगपैक किया निकल पड़ी फिर वापस सारनाथ की ओर। आपको बता दु सारनाथ से ये डेढ़ किलोमीटर दूर है।


एक बार फिर शुरू हुआ सारनाथ का सफर पदयात्रा से....सारनाथ में सबसे पहले मैं पँहुचते इतना थक चुकी थीं कि मुझे जोरो की भूख लग चुकी थी। बारिश का मौसम और उसमे गरमा गरम भुट्टे, आह आह मजा ही आगया।


बस निकल पड़ी भुट्टो के साथ मूलगंध कुटी विहार।




वहाँ पँहुचते पहले तो वीडियो के काम शुरू हो गए। जिसके लिंक आप तक पहुँचा रही... https://youtu.be/3QJlo8ebDRk


मूलगंधकुटी विहार.. आपको बता दू कि यह मंदिर काफी बड़ा और सुन्दर है, जो महाबोधि सोसायटी द्वारा बनाया गया है।इस मंदिर का निर्माण 1931 में किया गया।
       मंदिर के अन्दर बड़ी बड़ी तस्वीरें लगी है जिन्हें जापानी चित्रकार कोसेत्सू नोसू ने बनाया था।मन्दिर प्रांगण में गौतम बुद्ध की सोने की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर परिसर में एक बहुत बड़ा घंटा लगा है,जो हर किसी को आकर्षित करता है।


इसी के ठीक अपोजिट बुद्ध भगवान की वो तपो भूमि है जहाँ उन्होंने अपने शिष्यों को शिक्षा दीक्षा दी। आपको उसके भी लिंक शेयर कर रही...जिसे तिब्बतन टेम्पल के नाम से जाना जाता है।


https://youtu.be/eugMLpy7-lA


ये वही जगह है जहाँ भगवान बुद्ध ने बोधगया में ज्ञान प्राप्त करने के बाद जब सारनाथ आये तो इसी जगह उनकी भेंट उन पांच भिक्षुओं से हुई थी; जिन्हें उन्होंने अपना पहला उपदेश दिया था।


मूलगंधकुटी मंदिर के बगल में ही दाई ओर पवित्र बोधि वृक्ष है, यह वही पवित्र स्थल है जहां पर भगवान बुद्ध ने अपने पांच शिष्यों को पहला उपदेश दिया।आपको बता दू की यहां जो पीपल का वृक्ष लगा है, उसे श्रीलंका से लाया गया था। सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा बोधगया स्थित पवित्र पीपल के पेड़ की एक शाखा श्रीलंका के अनुरंधपुरा में लगाई थी; जो कि उसी पेड़ की एक टहनी को सारनाथ में लगाया था।

वही इतिहास के दर्ज पन्नों को टटोलते है तो....यह विहार धर्मराजिका स्तूप से उत्तर की ओर स्थित है। पूर्वाभिमुख इस विहार की कुर्सी चौकोर है जिसकी एक भुजा 18.29 मी. है। सातवीं शताब्दी में भारत-भ्रमण पर आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इसका वर्णन 200 फुट ऊँचे मूलगंध कुटी विहार के नाम से किया है।
इस मंदिर पर बने हुए नक़्क़ाशीदार गोले और नतोदर ढलाई, छोटे-छोटे स्तंभों तथा सुदंर कलापूर्ण कटावों आदि से यह निश्चित हो जाता है कि इसका निर्माण गुप्तकाल में हुआ था। परंतु इसके चारों ओर मिट्टी और चूने की बनी हुई पक्की फर्शों तथा दीवारो के बाहरी भाग में प्रयुक्त अस्त-व्यस्त नक़्क़ाशीदार पत्थरों के आधार पर कुछ विद्धानों ने इसे 8वीं शताब्दी के लगभग का माना है।
        ऐसा प्रतीत होता है कि इस मंदिर के बीच में बने मंडप के नीचे प्रारंभ में भगवान बुद्ध की एक सोने की चमकीली आदमक़द मूर्ति स्थापित थी। मंदिर में प्रवेश के लिए तीनों दिशाओं में एक-एक द्वार और पूर्व दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार (सिंह द्वार) था। कालांतर में जब मंदिर की छत कमज़ोर होने लगी तो उसकी सुरक्षा के लिए भीतरी दक्षिणापथ को दीवारें उठाकर बन्द कर दिया गया।

अत: आने जाने का रास्ता केवल पूर्व के मुख्य द्वार से ही रह गया। तीनों दरवाजों के बंद हो जाने से ये कोठरियों जैसी हो गई, जिसे बाद में छोटे मंदिरों का रूप दे दिया गया। 1904 ई. में श्री ओरटल को खुदाई कराते समय दक्षिण वाली कोठरी में एकाश्मक पत्थर से निर्मित 9 ½ X 9 ½ फुट की मौर्यकालीन वेदिका मिली। इस वेदिका पर उस समय की चमकदार पालिश है। यह वेदिका प्रारम्भ में धर्मराजिका स्तूप के ऊपर हार्निका के चारों ओर लगी थीं। इस वेदिका पर कुषाणकालीन ब्राह्मी लिपि में दो लेख अंकित हैं- ‘आचाया(र्य्या)नाँ सर्वास्तिवादि नां परिग्रहेतावाम्’ और ‘आचार्यानां सर्वास्तिवादिनां परिग्राहे’। इन दोनों लेखों से यह ज्ञात होता है कि तीसरी शताब्दी ई. में यह वेदिका सर्वास्तिवादी संप्रदाय के आचार्यों को भेंट की गई थी।



यही पर एक मिनी जू भी है ,जो कि बच्चो को ज्यादा लुभावने होते है। पर्यटक स्थल होने के कारण थोड़े बहुत जिसमे कई पशु-पक्षी है।मगर सच कहूं तो टिकट लेना बेकार सा लगा।


इसलिए जल्दी जल्दी एक चक्कर लगा कर वहां से तुरंत अब निकल पड़ी अगले सफर के लिए क्योंकि मोबाइल की बेटरी भी 36% ही बची थी। वहां से जल्दी जल्दी में पहुँची..धमेख स्तूप के पीछे वाले मन्दिर में मगर वो बन्द हो चुका था। जिसे मैं आपको न घूम सकी न घुमा सकी।


वहाँ से निकली तो धमेख स्तूप पहुँची,




एक बेहद शक्तिशाली जगह।




https://youtu.be/CAeTdHBlhXM


आपको बता दे कि धामेक स्तूप का निर्माण 500 ईसवी में मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोकद्वारा 249 ई.पू. में बनवाये गए एक पूर्व स्तूप के स्थान पर किया गया था। यह सारनाथ की सबसे आकर्षक संरचना है। सिलेन्डर के आकार के इस स्तूप का आधार व्यास 28 मीटर है जबकि इसकी ऊंचाई 43.6 मीटर है। धमेक स्तूप को बनवाने में ईट और रोड़ी और पत्थरों को बड़ी मात्रा में इस्तेमाल किया गया है। स्तूप के निचले तल में शानदार फूलों की नक्कासी की गई है।


इतिहास के दर्ज पन्नों को पलट कर देखे तो ...


इसका विस्तार कुषाण-काल में हुआ, लेकिन गुप्तकाल में यह पूर्णत: तैयार हुआ। यह साक्ष्य पत्थरों की सजावट और उन पर गुप्त लिपि में अंकित चिन्हों से निश्चित होता है।


कनिंघम ने सर्वप्रथम इस स्तूप के मध्य खुदाई कराकर 0.91 मीटर (3 फुट) नीचे एक शिलापट्ट प्राप्त किया था। इस शिलापट्ट पर सातवीं शताब्दी की लिपि में ‘ये धर्महेतु प्रभवा’ मंच अंकित था। इस स्तूप में प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 8 ½ इंच X 2 ¼ इंच आकार की हैं



           धमेक (धमेख) शब्द की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों का मत है कि यह संस्कृत के ‘धर्मेज्ञा’ शब्द से निकला है। किंतु 11 वीं शताब्दी की एक मुद्रा पर ‘धमाक जयतु’ शब्द मिलता है। जिससे उसकी उत्पत्ति का ऊपर लिखे शब्द से संबंधित होना संदेहास्पद लगता है। इस मुद्रा में इस स्तूप को धमाक कहा गया है। इसे लोग बड़ी आदर की दृष्टि से देखते थे और इसकी पूजा करते थे।



कनिंघम ने ‘धमेख’ शब्द को संस्कृत शब्द ‘धर्मोपदेशक’ का संक्षिप्त रूप स्वीकार किया है। उल्लेखनीय है कि बुद्ध ने सर्वप्रथम यहाँ ‘धर्मचक्र’ प्रारंभ किया था। अत: ऐसा संभव है कि इस कारण ही इसका नाम धमेख पड़ा हो।


सारनाथ में धमेख स्तूप, जैन मंदिर, सम्राट अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तंभ, सारनाथ म्यूजियम आदि और भी कई घूमने लायक जगह हैं।सारनाथ के क्षेत्र की खुदाई से गुप्तकालीन अनेक कलाकृतियां तथा बुद्ध प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जो वर्तमान संग्रहालय में सुरक्षित हैं। गुप्तकाल में सारनाथ की मूर्तिकला की एक अलग ही शैली प्रचलित थी, जो बुद्ध की मूर्तियों के आत्मिक सौंदर्य तथा शारीरिक सौष्ठव की सम्मिश्रित भावयोजना के लिए भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में प्रसिद्ध है। सारनाथ में एक प्राचीन शिव मंदिर तथा एक जैन मंदिर भी स्थित हैं।


जैन मंदिर 1824 ई. में बना था; इसमें श्रियांशदेव की प्रतिमा है। जैन किंवदंती है कि ये तीर्थंकर सारनाथ से लगभग दो मील दूर स्थित सिंह नामक ग्राम में तीर्थंकर भाव को प्राप्त हुए थे। सारनाथ से कई महत्त्वपूर्ण अभिलेख भी मिले हैं जिनमें प्रमुख काशीराज प्रकटादित्य का शिलालेख है। इसमें बालादित्य नरेश का उल्लेख है जो फ़्लीट के मत में वही बालादित्य है जो मिहिरकुल हूण के साथ वीरतापूर्वक लड़ा था। यह अभिलेख शायद 7वीं शती के पूर्व का है। दूसरे अभिलेख में हरिगुप्त नामक एक साधु द्वारा मूर्तिदान का उल्लेख है।


यह अभिलेख 8वीं शती ई. का जान पड़ता है।


बीच में लोग इसे भूल गए थे। यहाँ के ईंट-पत्थरों को निकालकर वाराणसी का एक मुहल्ला ही बस गया। 1905 ई. में जब पुरातत्त्व विभाग ने खुदाई आरंभ की तब सारनाथ का जीर्णोद्धार हुआ। अब यहाँ संग्रहालय है, 'मूलगंध कुटी विहार' नामक नया मंदिर बन चुका है, बोधिवृक्ष की शाखा लगाई गई है और प्राचीन काल के मृगदाय का स्मरण दिलाने के लिए हरे-भरे उद्यानों में कुछ हिरन भी छोड़ दिए गए हैं। संसार भर के बौद्ध तथा अन्य पर्यटक यहाँ आते रहते हैं।


वहाँ से निकली तो वट थाई मन्दिर पहुँच गयी।


थाई मंदिर का निर्माण एक थाई समुदाय ने करवाया था।
मंदिर की खासियत इसकी थाई वास्तुशिल्प शैली है। यह मंदिर अपने आप में काफी रंगीन है और थाई बौद्ध महंतों के द्वारा संचालित किया जाता है। इसे एक खूबसूरत गार्डन में बनाया गया है, जो कि एक शांत और एकांत जगह है।


दरअसल एक प्रमुख बौद्ध तीर्थ स्थल होने के नाते पूरे विश्व से यहां श्रद्धालू आते हैं। खासकर जापान, थाईलैंड और चीन जैसे बौद्ध धर्म प्रधान देशों से। यही पे बुद्ध सरोवर भी बनाया गया है।




                                वट थाई मन्दिर

यही पे अशोक का स्तम्भ, मुख्य मंदिर से पश्चिम की ओर एक अशोककालीन प्रस्तर-स्तंभ है जिसकी ऊँचाई प्रारंभ में 17.55 मी. (55 फुट) थी। वर्तमान समय में इसकी ऊँचाई केवल 2.03 मीटर (7 फुट 9 इंच) है।



स्तंभ का ऊपरी सिरा अब सारनाथ संग्रहालय में है। नींव में खुदाई करते समय यह पता चला कि इसकी स्थापना 8 फुट X16 फुट X18 इंच आकार के बड़े पत्थर के चबूतरे पर हुई थी। इस स्तंभ पर तीन लेख उल्लिखित हैं। पहला लेख अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि में है जिसमें सम्राट ने आदेश दिया है कि जो भिछु या भिक्षुणी संघ में फूट डालेंगे और संघ की निंदा करेंगे: उन्हें सफ़ेद कपड़े पहनाकर संघ के बाहर निकाल दिया जाएगा। दूसरा लेख कुषाण-काल का है। तीसरा लेख गुप्त काल का है, जिसमें सम्मितिय शाखा के आचार्यों का उल्लेख किया गया है।

यहाँ से आगे बढ़ी तो चौखंडी स्तूप पड़ा जो कि 5.30 होने से बन्द हो चुका था।

इतिहास के पन्नों को उल्टफेरी करी तो ...धमेख स्तूप से आधा मील दक्षिण यह स्तूप स्थित है, जो सारनाथ के अवशिष्ट स्मारकों से अलग हैं। इस स्थान पर गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था जिसके स्मारकस्वरूप इस स्तूप का निर्माण हुआ।

ईटों से बनी यह विशाल संरचना वस्तुतः बौद्ध स्तूप है, जो गुप्त काल में लगभग चौथी-पांचवी शती में बनायीं गयी थी। इस स्तूप का उल्लेख सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपने यात्रा वृतांत में किया था।

इस स्तूप की कुल ऊँचाई 93 फीट है। यहां से कई मूर्तियाँ मिली हैं जिसमे धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा में बुद्ध प्रतिमा भी है। स्तूप के शिखर पर अष्टभुजीय मुग़लकालीन संरचना है जिसके उतरी द्वार पर एक अरबी शिलालेख है। इसके अनुसार मुग़ल बादशाह हुमायूँ की सारनाथ यात्रा को यादगार बनाने के लिए इसका निर्माण राजा टोडरमल के पुत्र गोवर्धन द्वारा 1588 में करवाया गया था।


ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की स्थिति सारनाथ से 0.8 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो 91.44 मी. ऊँचा था। इसकी पहचान चौखंडी स्तूप से ठीक प्रतीत होती है। इस स्तूप के ऊपर एक अष्टपार्श्वीय बुर्जी बनी हुई है।

इसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख उल्लिखित है, जिससे ज्ञात होता है कि टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धन सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। लेख में वर्णित है कि हुमायूँ ने इस स्थान पर एक रात व्यतीत की थी, जिसकी यादगार में इस बुर्ज का निर्माण संभव हुआ।

एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1836 ई. में इस स्तूप में रखे समाधि चिन्हों की खोज में इसके केंद्रीय भाग में खुदाई की, इस खुदाई से उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मिली। सन् 1905 ई. में श्री ओरटेल ने इसकी फिर से खुदाई की। उत्खनन में इन्हें कुछ मूर्तियाँ, स्तूप की अठकोनी चौकी और चार गज ऊँचे चबूतरे मिले। चबूतरे में प्रयुक्त ऊपर की ईंटें 12 इंच X10 इंच X2 ¾ इंच और 14 ¾ X10 इंच X2 ¾ इंच आकार की थीं जबकि नीचे प्रयुक्त ईंटें 14 ½ इंच X 9 इंच X2 ½ इंच आकार की थीं।

इस स्तूप का ‘चौखंडी‘ नाम पुराना जान पड़ता है। इसके आकार-प्रकार से ज्ञात होता है कि एक चौकोर कुर्सी पर ठोस ईंटों की क्रमश: घटती हुई तीन मंज़िले बनाई गई थीं। सबसे ऊपर मंज़िल की खुली छत पर संभवत: कोई प्रतिमा स्थापित थी। गुप्तकाल में इस प्रकार के स्तूपों को ‘त्रिमेधि स्तूप’ कहते थे। उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर यह निश्चित हो जाता है कि गुप्तकाल में इस स्तूप का निर्माण हो चुका था।

तो दोस्तो कैसी लगी मेरी ये यात्रा,छमा चाहूँगी समय कम होने से संग्रहालय नही देख पाई ,ओर चौखंडी स्तूप भी सिर्फ बाहर मात्र से देख ही प्रसन्न हूँ। मुझे खुशी है कि मेरे पास आप जैसे साथी है ,तो दोस्तो अपनी राय अवश्य दे।






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