सफ़र उफ़ से लेकर पैड वाली सेल्फी तक...... एक महिला होने के नाते मुझे भी अच्छा लग रहा है कि लोगो का नजरिया बदल रहा है पीरियड्स के लिए.....!मगर मन में भी उतनी ही शंकाएं है।कही ये अभियान सिर्फ हाथ में पैड लेकर फ़ोटो पोस्ट करने तक तो सीमित नही?क्योंकि मासिक धर्म पर बात करना हमारे समाज मे एक शर्म की बात मानी जाती हैं। जबकि ये एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है,जो हर स्त्री के लिए जरूरी हैं।क्योंकि मासिक धर्म के बिना स्त्री का माँ बनना उतना ही कठिन होता हैं। इस दौरान हमारे समाज मे स्त्रियों को अछूत का दर्जा दिया जाता हैं। एक समय ऐसा भी था कि लड़कों को क्या घर मे किसी को भी पता नही होता था इस बारे में.. घरों में छुपाया जाता था। जिसमे कई अजीबो-गरीब किस्से जुड़े होते थे ,न तो बहु घर के रसोई में जाती,न पूजा पाठ,न ही किसी के नजदीक...इतना तो जायज है मगर फिर भी एक स्त्री अपनी पीड़ा को किसी से कहती तो दूसरी स्त्री ही चुप कराते बोलती है.."अरे रत्ती भर शर्म हया है कि नही"! क्या महिलाएं अपने अंदर हो रहे पीड़ा को एक महिला से नही कह सकती। कैसी मानसिकता है ये समाज की अब पीरियड्स उतना बड़ा शब्द नही रहा जितना पहले हुआ करता था। अब समय है तो जागरूकता की,जिसमे ये समझाना बेहद जरूरी है कि ये एक ऐसी अवस्था है जिसमे अधिक देखभाल की जरूरत होती है न कि तिरस्कार,छुआछूत की। कुछ ऐसे भी लोगो से मुलाकात हुई जिन्होंने पीरियड्स को छुआछूत का दर्जा दे दिया ,जो कि सिर्फ और सिर्फ एक शारीरिक प्रक्रिया है। दाद देनी वाली बात है फिल्म " पैडमैन " को जिसने सदियों से दबी हुई आवाजों को महसूस ही नही बल्कि उसकी पीड़ा को समझाने की कोशिश की जो शायद अभी तक न हुआ।आज भी गांवों में महिलाएँ पैड नही कपड़े यूज़ करती है जिसे तमाम तरह की बीमारियां जकड़ लेती है ,लेकिन इसके पीछे का सच अगर कुछ है तो सिर्फ "शर्म"? आखिर ये किस बात की शर्म है क्या आपने कुछ गलत किया है जो न इनपे खुलकर विचारविमर्श कर सके। पीरियड्स हर महिला के लिए एक कष्टदायक समय होता हैं,जिसमे महिलाएं तमाम यातनाओं के बाद भी मुस्कुरा के काम किया करती है। आज भी लाखों घर ऐसे है जहाँ महिलाएं पीरियड्स पर खुलकर बातचीत नही करती। आख़िर ये क्या दकियानूसी प्रथा है ...जहाँ कपड़े को इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है,हर स्त्री को जानना ज़रूरी है गन्दे कपड़े शरीर को और गन्दा कर देते हैं फिर बीमारियों का खतरा...और अधिक बढ़ जाता है। नहाओगी तो पांच दिन मैं ही,ये कौन सी दादागिरी हैं?क्या अब पांच दिन तक नहा भी नही सकते?अरे भाई बाहर निकलो इस सोच से,जिस तरह बाकी बातों में आधुनिकता दिखा रहे हो उसी तरह इस बारे मैं आधुनिकता क्यों नहीं??आज भी 80 प्रतिशत लोग की मानसिकता हमारे समाज को गलत प्रतिक्रिया दे रही,जिसका कोई जवाब नही। आज भी जब घर के किसी सदस्य को सैनिटरी पैड खरीदने को बोलो तो उन्हें शर्म महसूस होती हैं आख़िर क्यों???क्या ये इतनी शर्म की बात है कि जब आप मेडिकल स्टोर पर सैनिटरी पैड लेने जाते हो तो दुकानदार भी उसे कागज में लपेट कर, काली पॉलीथिन मैं बांध कर देता है,क्यों??? क्योंकि कहीं कोई देख न ले। जब हाथ मे पैड लेकर सेल्फ़ी लेने में शर्म नहीं तो फिर पैड माँगने खरीदने में झिझक कैसी। लोग कितनी ही फ़िल्म क्यों न देख ले या उन्हें कितना भी समझा क्यों न दिया जाए मगर शर्म की बात अभी भी इस पीढ़ी में कही न कही चल रही। लेकिन इस बात में तो दम है कि पैडमैन से लोग खुलकर आज पैड-पैड चिल्ला रहे,पर्दे के भीतर दबी कराह अब इन दिनों सोशल मीडिया पर जोरदार चर्चाओं में है। मगर समय है जागरूकता का क्योंकि आज भी न जाने कितनी महिलाएं इस दर्द से हर महीने कहराती है और सैनिटरी पैड को इस्तेमाल करने में दिक्कत महसूस करती है। मेरा मानना है कि ना तो पैड खरीदने में कोई झिझक हो और ना किसी से इस बात को कहने में शर्म। हाँ,अगर अभियान के तहत लोग गाँवो में जाते और महिलाओं से पीरियड्स के बारे में खुलकर बाते करते तो बदलाव की उम्मीद ज्यादा दिखती।मगर मुझे एक सवाल उनसे भी पूछना है जो लोग पैड्स को GST फ्री या सस्ता करने की बात कर रहे ,पैड सस्ते होंगे तो इस्तेमाल भी ज्यादा होंगे??ज़रा सोचिए इस्तेमाल ज्यादा होंगे तो फेंके भी ज्यादा जाएगे,उस कचरे से बीमारी न हो उसको कैसे सुनिश्चित करें??? तो अब बात सिर्फ पैड दिखा कर लोगों को पैड इस्तेमाल करने के लिए सजग करने तक सीमित नहीं रहा, बात है लोगों को जागरूक करने की उन्हें ये बताने कि पीरियड्स में क्या सावधानियाँ रखे और पैड्स कैसे इस्तेमाल करे।

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट