|| Aagomoni ||



मातृशक्ति का अहसास ही,नौ रूपों की आराधना



तू शोक दुःख निवारिणी सर्वमंगलकारिणी,चण्ड-मुण्ड विधारिनी तू ही शुभ-निःशुम्भ सिधारिनि जगत का नियंत्रण एवं संचालन करने वाली 108 नाम व बत्तीस जापो के नाम से जानने वाली कोई और नही जगत-जननी जगदम्बा देवी उमा की शक्ति देवी दुर्गा है। हर वर्ष देवी की यह शक्ति पूजा वर्ष भर में पूरे धूमधाम से दो बार मनाया जाता है। वैसे तो चार नवरात्र पर्व होते है,लेकिन दो ही ख़ास है। चैत्र नवरात्र व शारदीय नवरात्र। नव रात ही हर स्त्री की शक्ति है। कहते है कि हर अंक अपने मे शुभ है,ठीक उसी तरह ये नौ अंक की महिमा मंडन की रूपरेखा भी देवी के नव रुपों का व्याख्यान करता है। जगत का नियंत्रण एवम संचालन करने वाली अन्नभंडारिणी ,त्रिगुणात्मक शक्ति स्वरूपा,पाप विनाशिनी, कैलाश पर्वत की निवासिनी,शिव की अर्धागिनी, माँ पार्वती के जप - तप की शक्ति ही है नौ स्वरूपा देवी आदि जगदम्बा। जिनके महिमा व स्वरूपों का साक्षात दर्शन वेदों-पुराणों में विस्तार से मिलता हैं।  

वेद- पुराण के पन्नों को पलटिए तो देवी के हर स्वरूप के दर्शन होना तय है। तो आइए चलते है एक बार फिर इतिहास के पन्नों को पलटने और बहुत सारे सवाल जवाब को टटोलने जहा भीतर ही भीतर तमाम तरह की बाते पढ़ने सुनने को मिलती है। एक ऐसी स्त्री की कहानी जो एक सामान्य महिला तो थी,लेकिन अपने जप ,तप ,यश, हठ से देवाधिदेव को भी मना ली। एक ऐसी हठी नारी जिसने महादेव को अपना वर चुना। हर जन्म में उन्हें ही पाया। एक ऐसी नारी जिसने हर जन्म में तमाम संकटों को झेलते हुए भी संसार की हर स्त्री को मजबूती की नींव दी। एक ऐसी नारी जिसने संस्कृति नही अपितु मॉडर्न युग को भी धूल चटाने के लिए नारीशक्ति का पाठ बनाया ऐसी भगवती को नमन। ऐसी शक्ति को नमन। ऐसी जीवनदायिनी को नमन और आप सभी को नवरात्रि की ढेरों शुभकामनाएं!समय को देखते हुए और जानकारी को टटोलते हुए हमें ये जान लेना बेहद जरूरी है कि जिस नारी को हम दो बार हर वर्ष धूमधाम से लाते है उसके पीछे महज़ एक ही कारण है - वो है नारी शक्ति!
महंत पंण्डित लिंगिया जी महाराज के अनुसार अथर्ववेद में वर्णन मिलता है कि भगवती दुर्गा समस्त देवी-देवताओं का अधिष्ठान है।क्योंकि दुर्गा सप्तशती के दूसरे अध्याय में लिखा है कि देवी सभी देवताओं के तेज से प्रकट हुई और इनका नाम नव दुर्गा पड़ा।कहते है कि देवी रात्रि स्वरूपा है,इनकी पूजा करने से विशेष फल प्राप्त होते हैं। वही श्रीमद्भागवत में भी देवी का बखान पढ़ने को मिलता है,जो केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही नही अपितु शास्त्रीय दृष्टि से भी अति महत्वपूर्ण है। अब आप सोच रहे होंगे कि मॉडर्न युग के इकसवी सदी में शास्त्रीय दृष्टि कोण क्या है?ये वो बीड़ा है जो व्यक्ति के सांसारिक ऐश्वर्या ,संतान, यश,विद्या की कामना से जुड़ा है। इसीलिए शक्ति उपासना व शत्रु पर विजयी प्राप्ति के लिए देवी सर्वत्र पूज्य है।
अब थोड़ा सा और आगे बढ़े तो रामायण काल मे भी भगवान विष्णु के स्वरूप श्री राम भी देवी के नौ स्वरूपो का बखान कर रहे। उन्होंने भी देवी का आह्वान कर के ही रावण को परास्त कर विजयी प्राप्त किया। इसका आदेश देवऋषि नारद जी ने दिया था। हम यह कह सकते है कि एक ऐसी नारी जिसकी उपासना देव दानव मनुष्य सभी ने की।देखा जाए तो नवरात्रि पूजा वैदिक युग से भी पहले, प्रागैतिहासिक काल से चला आ रहा है।



    पुराणों के पन्नों पर दर्ज कहानियां

● शिव की अर्धागिनी कैलाश की निवासिनी,आदि सतयुग के राजा दक्ष की पुत्री है पार्वती और उनकी शक्ति भगवती दुर्गा। जिनकी मन्दिर मानसरोवर के समीप है।जहां दक्षायनी माता का मंदिर है।कहते है देवी यहाँ पर एक हाथ में तलवार और दूसरे में कमल का फूल लिए पितांबर वस्त्र, सिर पर मुकुट, मस्तक पर श्वेत रंग का अर्थचंद्र तिलक और गले में मणियों-मोतियों का हार धारण किये हुए भगवती दुर्गा हैं शेर पर सवार है।कहते है भगवती को मनाना बहुत आसान तब है जब आपके भीतर ना छल हो ना कपट। देवी न मंत्र, न तंत्र और न ही पूजा-पाठ बल्कि प्रार्थना से ही खुश होती है ये सत्य है। इसीलिए मां की आराधना ,प्रार्थना या स्तुति के कई श्लोक पुराणों में दिए गए है।शुंभ-निशुंभ, महिषासुर आदि राक्षसों का वध करने वाली यही है।ऐसी हठी तपी पुत्री आदि सतयुग के राजा दक्ष की है,इन्हें ही पुत्री उमा व माता सती को शक्ति कहा जाता है। शिव की अर्धागिनी होने से भगवती का नाम शक्ति हो गया। हालांकि उनका असली नाम दाक्षायनी भी है।इन्होंने पति वियोग में यज्ञ कुंड में कुदकर आत्मदाह किया जिस कारण इन्हें सती कहा गया। पिता की ‍अनिच्छा से उन्होंने हिमालय के इलाके में ही रहने वाले योगी शिव से विवाह कर लिया। इससे पिता क्रोधित हो उठे और एक यज्ञ में जब दक्ष ने सती और शिव को न्यौता नहीं दिया, फिर भी माता सती शिव के मना करने के बावजूद अपने पिता के यज्ञ में पहुंच गई।लेकिन राजा दक्ष ने शिव के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें कही। सती को यह सब बरदाश्त नहीं हुआ और वो वहीं यज्ञ कुंड में कूद कर अपने प्राण की आहुति दे दी। इधर यह खबर सुनते ही शिव ने अपने सेनापति वीरभद्र को भेजा, जिसने दक्ष का सिर काट दिया। इसके बाद जो हुआ वो अकल्पनीय है देवाधिदेव व उमा का प्रेम पूरे संसार को एक पाठ पढ़ाता है। जब महादेव दुखी होकर सती के शरीर को अपने कन्धे पर धारण कर शिव ‍क्रोधित हो धरती पर घूमने लगे, तब उनके क्रोध और पत्नी वियोग ने उन्हें पागल सा बना दिया। इस दौरान समस्त संसार मे त्राहि त्राहि मच उठा ये सब देख देव दानव समस्त देवगण चिंतित हो उठे तब भगवान विष्णु ने देवाधिदेव की ये हालत को रोकने के लिए उन्हें शांत करने के लिए उन्होंने सुदर्शन चक्र से सती के अंग को अलग अलग किया। जहां-जहां देवाधिदेव घूमते रहे सती के शरीर के अंग या आभूषण वही वही गिरे। बाद में वहां भगवती दुर्गा का शक्तिपीठ निर्मित किया गया।जहां पर जो अंग या आभूषण गिरा उस शक्तिपीठ का नाम वही रखा गया।बाद में उन्होंने पार्वती के रूप में जन्म लिया। पार्वती नाम इसलिए पड़ा की वह पर्वतराज अर्थात् पर्वतों के राजा की पुत्री थी, जिन्हें राजकुमारी कहा गया।देवी के हठ ने हर जन्म में देवाधिदेव को ही अपना परमेश्वर माना।


● नवरात्र में हम सभी देवी दुर्गा के अनेको महिमा सुनते है।उनमें से सबसे प्रचलित कथा है महिसासुर वध। कथाओं अनुसार महिषासुर के एकाग्र ध्यान से बाध्य होकर देवताओं ने उसे अजय होने का वरदान दे दिया। उसे वरदान देने के बाद देवताओं को चिंता हुई कि वह अब अपनी शक्ति का गलत प्रयोग करेगा और प्रत्याशित प्रतिफल स्वरूप महिषासुर ने नरक का विस्तार स्वर्ग के द्वार तक कर दिया और उसके इस कृत्य को देख देवता विस्मय की स्थिति में आ गए। महिषासुर ने सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम, वरुण और अन्य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए थे और स्वयं स्वर्गलोक का मालिक बन बैठा। देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा थे।तब महिषासुर के इस दुस्साहस से क्रोधित होकर देवताओं ने देवी दुर्गा की रचना की। ऐसा माना जाता है कि देवी दुर्गा के निर्माण में सारे देवताओं का एक समान बल लगाया गया। महिषासुर का नाश करने के लिए सभी देवताओं ने अपने अपने अस्त्र भगवती दुर्गा को दिए थे।जिससे इन देवताओं के सम्मिलित प्रयास से देवी दुर्गा और बलवान हो गईं ।तब उन्होंने कन्या रूपी रूप में क्रोधित हो इन नौ दिन देवी-महिषासुर संग्राम हुआ और अन्ततः महिषासुर का वध कर भगवती महिषासुर मर्दिनी कहलायीं।


● वही एक और चर्चित कथा सुनने को मिलती है वह है , लंका-युद्ध में ब्रह्माजी ने श्रीराम से रावण वध के लिए चंडी देवी का पूजन कर देवी को प्रसन्न करने को कहा और बताए अनुसार चंडी पूजन और हवन हेतु दुर्लभ एक सौ आठ नीलकमल की व्यवस्था की गई। वहीं दूसरी ओर रावण ने भी अमरता के लोभ में विजय कामना से चंडी पाठ प्रारंभ किया। यह बात इंद्र देव ने पवन देव के माध्यम से श्रीराम के पास पहुँचाई और परामर्श दिया कि चंडी पाठ यथासभंव पूर्ण होने दिया जाए। इधर हवन सामग्री में पूजा स्थल से एक नीलकमल रावण की मायावी शक्ति से गायब हो गया और राम का संकल्प टूटता-सा नजर आने लगा। भय इस बात का था कि देवी माँ रुष्ट न हो जाएँ। दुर्लभ नीलकमल की व्यवस्था तत्काल असंभव थी, तब भगवान राम को सहज ही स्मरण हुआ कि मुझे लोग 'कमलनयन नवकंच लोचन' कहते हैं, तो क्यों न संकल्प पूर्ति हेतु एक नेत्र अर्पित कर दिया जाए और प्रभु राम जैसे ही तूणीर से एक बाण निकालकर अपना नेत्र निकालने के लिए तैयार हुए, तब देवी प्रकट हुई और कही " राम मैं प्रसन्न हूँ और विजयश्री का आशीर्वाद दिया।" वहीं रावण के चंडी पाठ में यज्ञ कर रहे ब्राह्मणों की सेवा में ब्राह्मण बालक का रूप धर कर हनुमानजी सेवा में जुट गए। निःस्वार्थ सेवा देखकर ब्राह्मणों ने हनुमानजी से वर माँगने को कहा। इस पर हनुमान ने विनम्रतापूर्वक कहा- प्रभु, आप प्रसन्न हैं तो जिस मंत्र से यज्ञ कर रहे हैं, उसका एक अक्षर मेरे कहने से बदल दीजिए। ब्राह्मण इस रहस्य को समझ नहीं सके और तथास्तु कह दिया। मंत्र में जयादेवी... भूर्तिहरिणी में 'ह' के स्थान पर 'क' उच्चारित करें, यही मेरी इच्छा है।भूर्तिहरिणी यानी कि प्राणियों की पीड़ा हरने वाली और 'करिणी' का अर्थ हो गया प्राणियों को पीड़ित करने वाली, जिससे देवी रुष्ट हो गईं और रावण का सर्वनाश करवा दिया। हनुमानजी महाराज ने श्लोक में 'ह' की जगह 'क' करवाकर रावण के यज्ञ की दिशा ही बदल दी।इस तरह से रावण का भी वध हुआ।


कलश - स्थापना




17अक्टूबर से नवरात्रि आरम्भ है,लेकिन भगवती दुर्गा के आगमन के लिए घर -घर मे साफ-सफाई, साज - सज्जा जोरो शोरो पर है। कोरोना काल के होने से इस बार की नवरात्रि हर घर अपने भरे पूरे परिवार के साथ मनाएगा। भगवती के देव स्थान से लेकर घर के हर कोने पर भगवती के आगमन के लिए विशेष रूप से सजावट की जा रही, कोई तोरण से तो कोई आम के पल्लो से। इन सभी तैयारियो की नींव है नवरात्र का पहला दिन यानि "कलश-स्थापना"!

लेकिन क्या आप जानते है आखिर क्यों कि जाती है कलश स्थापना?इसका सही दिशा ,स्थान, समय आखिर क्या है?हमारे हिन्दू धर्म मे मुहूर्त एक दिव्य वटी के तरह है,क्यों क्योंकि जिस समय उस कार्य का मुहूर्त होगा वो कार्य खुद ब खुद पूर्ण होगा। ठीक उसी तरह कलश स्थापना का भी मुहर्त होता है,मुहूर्त में किया कार्य सदैव फलदायी है ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। तो आइए जानते है काशी के महंत पण्डित श्री लिंगिया जी महाराज से:- भगवती नारी का स्वरूप है और भगवती को लाल रंग अत्यंत प्रिय है। इसलिए जब भी किसी बेटी की शादी होती है तो उसे लक्षमी का दर्जा दिया जाता है। उसे लाल रंग के वस्त्र में ही विदा किया जाता है। ठीक उसी प्रकार भगवती भी अपने घर आती है और उनके आगमन के लिए भी उतनी ही तैयारी होती हैं। भगवती को लाल रंग बेहद प्रिय है इसीलिए सदैब ध्यान रखे कि उनका वस्त्र लाल हो या ना हो मगर आसान सदैव लाल होना चाहिए।

कलश स्थापना या यूं कहें बेटी के आने की खुशी में या कहे घर मे लक्षमी का वास होना,जब भी नयी बहू घर मे आती है तो चावल से भरा कलश उससे गिरवाया जाता है इसका तात्पर्य है कि घर मे लक्ष्मी का वास हुआ। ठीक उसी प्रकार भगवती के आगमन में भी कलश स्थापना का बहुत महत्व है। शक्ति स्वरूपा का आवाहन यदि कलश स्थापना की सही रूप से किया जाए तो वे जीवन भर के लिए लाभदायी है। कलश स्थापना के समय मुहूर्त की जानकारी के बिना कभी कलश स्थापना ना करे वरना भगवती क्रोधित हो उठती है।

अश्विनी शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि 17 अक्टूबर को सुबह 6.27 से 10.13 तक रहेगा। देवी इस बार अश्व पर सवार हो धरती पर आ रही है। कलश स्थापना सदैव देव स्थान पर ही करे। प्रतिदिन उस स्थान को गंगाजल से छिड़काव करें।
कलश स्थापना के लिए मिट्टी का पात्र, जौ, मिट्टी, जल से भरा हुआ कलश, मौली, इलायची, लौंग, कपूर, रोली, साबुत सुपारी, साबुत चावल, सिक्के, अशोक या आम के पांच पत्ते, नारियल, चुनरी, सिंदूर, फल-फूल, फूलों की माला और श्रृंगार पिटारी भी चाहिए।पहले दिन यानी कि प्रतिपदा की सुबह स्नान कर के मंदिर की साफ-सफाई व गंगाजल से छिड़काव के बाद एक लकड़ी का पाटा रखें, जिसपे लाल वस्त्र का आसन बिछाए। आसन के पास एक छोटी सी अष्टदल बनाए। पाटे पर चावल हल्दी का छिड़काव कर सबसे पहले गणेश जी का नाम लें और फिर भगवती दुर्गा के नाम से अखंड ज्योति जलाएं। कलश स्थापना के लिए मिट्टी के पात्र में मिट्टी डालकर उसमें जौ के बीज बोएं। अब एक तांबे के लोटे पर रोली से स्वास्तिक बनाएं। लोटे के ऊपरी हिस्से में मौली बांधें। अब इस लोटे में पानी भरकर उसमें कुछ बूंदें गंगाजल की मिलाएं। फिर उसमें सवा रुपया, दूब, सुपारी, इत्र और अक्षत् डालें। इसके बाद कलश में अशोक या आम के पांच पत्ते लगाएं। अब एक नारियल को लाल कपड़े से लपेटकर उसे मौली से बांध दें। फिर नारियल को कलश के ऊपर रख दें। अब इस कलश को मिट्टी के उस पात्र के ठीक बीचों बीच रख दें, जिसमें आपने जौ बोएं हैं। कलश स्थापना के साथ ही नवरात्रि के नौ व्रतों को रखने का संकल्प लिया जाता है। आप चाहें तो कलश स्थापना के साथ ही माता के नाम की अखंड ज्योति भी जला सकते हैं।यहां आपको तीन खास बातें याद रखनी है :-
1).कलश स्थापना के दौरान बीच मे ना तो उठे ना ही बोले।
2).कलश स्थापना की अखण्ड ज्योति पर 9 दिन विशेष ध्यान दे। नौ दिन में से कभी भी घर बन्द करके ना जाए।
3).नौ दिन चण्डी पाठ के साथ दुर्गा सप्तशती का पाठ बजी अवश्य करें इससे बुरा से बुरा कार्य भी आसानी से पूर्ण होगा भगवती का आशीर्वाद सदैव बना रहेगा।


नौ रूपो की महिमा





प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।। 

माना जाता है कि नवरात्रि में भगवती दुर्गा पृथ्वी पर विचरण करती रहती है।वैसे तो भगवती को पूजना हर दिन फलदायी है लेकिन नवरात्रि के इन नौ दिन की महिमा अपरम्पार है। उनके नौ रूपो की पूजा महिमा इन्ही नौ दिन में खास होती हैं। काशी भले ही महादेव की नगरी हो लेकिन यहां भगवती दुर्गा के नौ स्वरूप के साक्षत दर्शन हो जाते है। देवी के नौ रूप के दर्शन के लिए इन नौ दिन देवी के धाम में जगह - जगह मेला व शृंगार बड़े ही धूमधाम से होता है। प्रथम दिन कलश स्थापना से शुरू होती है भगवती की आराधना और नौ दिन तक भगवती का जयकारा गूँजता है। तो आइए मुझ घुम्मकड़ी के साथ देवी के नौ धाम के दर्शन करने।

प्रथम शैलपुत्री - भगवती शैलपुत्री का दरबार मढिया घाट पर यानी राजघाट मार्ग पर है आप यहाँ ऑटो द्वारा आ सकते है। भगवती की महिमा है की वे ऐसे भक्तों का संकट हरती है जो गलत संगत में पड़ जाते है,देवी अपनी कनिष्ठा उँगली से लोगो का कष्ट हरती है।महंत लिंगिया जी महाराज बताते है कि भगवती शैल पर्वतराज की पुत्री होने के कारण ही इन्हें शैलपुत्री पुकारा जाने लगा। भगवती को कई प्रकार के रोगों में काम आने वाली औषधि हरड़ हिमावती भी जाना जाता है जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप है। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है। यह पथया, हरीतिका, अमृता, हेमवती, कायस्थ, चेतकी और श्रेयसी सात प्रकार की होती है। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इस देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। यही सती के नाम से भी जानी जाती हैं।

वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम्‌।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्‌ ॥
एक बार जब सती के पिता प्रजापति दक्ष ने यज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया, पर भगवान शंकर को नहीं। सती अपने पिता के यज्ञ में जाने के लिए विकल हो उठीं। शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है, उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है। परन्तु सती संतुष्ट नही हुईं।सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुंचीं तो सिर्फ मां ने ही उन्हें स्नेह दिया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे। भगवान शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव था। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे। इससे सती को क्लेश पहुंचा। वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा अपनेआप को जलाकर भस्म कर लिया।इस दारुण दुख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने तांडव करते हुये उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मी और शैलपुत्री कहलाईं। शैलपुत्री का विवाह भी फिर से भगवान शंकर से हुआ। शैलपुत्री शिव की अर्द्धांगिनी बनीं। इनका महत्व और शक्ति अनंत है।

द्वितीय ब्रम्हचारणी - भगवती ब्रम्हचारणी का दरबार दुर्गा घाट पर है। मन्दिर के पुजारी राजेश बताते है की ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली जो बच्चे नित्य माता की पूजा आराधना करते है उन्हें ब्रम्ह ज्ञान की प्राप्ति होती हैं। साथ ही भगवती दुष्ट आत्माओ का नाश करती है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप,त्याग, वैराग्य, सदाचार,सयंम की वृद्धि होती है। देवी को गुड़हल के पुष्प अति प्रिय है।
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥

भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इस देवी को तपश्चारिणी अर्थात्‌ ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया।कहते है मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। वही यह भी कहा जाता है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए।ऐसे में भगवती की आराधना करें।  मां शैलपुत्री ने नारद जी के उपदेश से भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी मां भगवती ने सैकड़ों वर्षो तक जमीन पर रहकर फल फूल खाकर तपस्या करी। तपस्या के अंत में कई वर्षों तक बिना कुछ खाए पिए तप किया इस कठिन तपस्या के कारण मां शैलपुत्री को ब्रह्मचारिणी के नाम से जाना गया मां ब्रह्मचारिणी का कोई वाहन नहीं है सफेद साड़ी पहने दाएं हाथ में जप माला और बाएं हाथ में कमंडल लिए मां को दर्शित किया जाता है।भगवती ब्राह्मी आयु व याददाश्त बढ़ाकर, रक्तविकारों को दूर कर स्वर को मधुर बनाती है। इसलिए इन्हें सरस्वती भी कहा जाता है।

तृतीय चंद्रघंटा - भगवती चंद्रघंटा का दरबार चौक में चित्रघन्टा गली में है। कहते है यहां के कूप में स्नान या उसका जल छिड़काव से चित्रगुप्त की पोथी से यानी ज्ञात अज्ञात पाप धुल जाएंगे। भगवती को आध्यात्मिक व आत्मिक शक्तियों की देवी माना जाता है देवी सभी बाधाओं को दूर करती हैं। देवी का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी माना गयी है। इसीलिए कहा जाता है कि हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखकर साधना करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है।
पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता॥
भगवती के मस्तक पर घंटे के आकार का आधा चंद्र है। इसीलिए देवी को चंद्रघंटा कहा गया। इनके शरीर का रंग सोने के समान बहुत चमकीला है व देवी के दस हाथ हैं। वे खड्ग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं।सिंह पर सवार युद्ध के लिए उद्धत रहने वाली है। इनके घंटे की भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य और राक्षस काँपते रहते हैं। देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाईं देने लगती हैं। इन क्षणों में साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए।देवी वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास है।आयुर्वेद में यह एक ऎसा पौधा है जो धनिए के समान है। यह औषधि मोटापा दूर करने में लाभप्रद है इसलिए इसे चर्महंती भी कहते हैं। 


चतुर्थ कुष्मांडा - भगवती कुष्मांडा का दरबार दुर्गा कुण्ड पर है। इनके उपासना से पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के साथ पूजा करने से भगवती सभी कष्टों व रोग शोक को दूर करती हैं। कहा जाता है कि इस दिनकुण्ड मे स्नान करने से समस्त संकट मिट जाते है।अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत्‌ हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है।देवी की आठ भुजाएं हैं, इसलिए अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृत में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्मांडा।भगवती का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है।अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। यह देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है।विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। यह देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख समृद्धि और उन्नति प्रदान करती हैं। अंततः इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए।
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे॥
आयुर्वेद में इस नाम की औषधि से पेठा मिठाई बनती है। इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं जो रक्त विकार दूर कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिक रोगों में यह अमृत समान है। भगवती ने ही दुर्गासुर का वध किया था। जिसकी कहानी भगवान कार्तिकेय काशी खण्ड में कहते है।

पंचम स्कंदमाता - भगवती स्कंदमाता का दरबार जैतपुरा में है। इन्हें मोक्षदायिनी यानी मोक्ष के द्वार खोलने वाली देवी है जो पुत्र प्राप्ति की इक्छा पूर्ण करती हैं। देवी की चार भुजाएं हैं। यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है।पहाड़ों पर रहकर सांसारिक जीवों में नवचेतना का निर्माण करने वालीं स्कंदमाता। नवरात्रि में पाँचवें दिन देवी की पूजा-अर्चना की जाती है। कहते हैं कि इनकी कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है। स्कंद कुमार कार्तिकेय की माता के कारण इन्हें स्कंदमाता नाम से अभिहित किया गया है। इनके विग्रह में भगवान स्कंद बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं। देवी की चार भुजाएं हैं। दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। यह कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है।
शास्त्रों में इसका पुष्कल महत्व बताया गया है। इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। भक्त को मोक्ष मिलता है। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कांतिमय हो जाता है। अतः मन को एकाग्र रखकर और पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में कठिनाई नहीं आती है।
इनकी पूजा से मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है। यह देवी विद्वानों और सेवकों को पैदा करने वाली शक्ति है। यानी चेतना का निर्माण करने वालीं। कहते हैं कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम महाकाव्य और मेघदूत रचनाएं स्कंदमाता की कृपा से ही संभव हुईं।देवी ने अपने दिव्य शक्ति से दुर्गासुर व उसके योद्धाओं का संहार किया था। ये बेह्द शक्तिशाली है। साथ ही काशी की सुरक्षा करती हैं।


षष्ठम कात्यायनी - भगवती कात्यानी का दरबार सिंधिया घाट पर आत्म वीरेश्वर परिसर में है। भगवती ने अम्बा रूप में महिसासुर का वध किया था। इनकी उपासना करने से धर्म,अर्थ,काम ,मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। इनका ध्यान यदि गधोलि बेला में किया जाए तो देवी प्रसन्न हो उठती है। कात्य गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की। कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं। इनका गुण शोधकार्य है। इसीलिए इस वैज्ञानिक युग में कात्यायनी का महत्व सर्वाधिक हो जाता है। इनकी कृपा से ही सारे कार्य पूरे जो जाते हैं। यह वैद्यनाथ नामक स्थान पर प्रकट होकर पूजी गईं।मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा की थी। यह पूजा कालिंदी यमुना के तट पर की गई थी।इसीलिए यह ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य है। यह स्वर्ण के समान चमकीली हैं और भास्वर हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। दायीं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। मां के बाँयी तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। इनका वाहन भी सिंह है।


सप्तम कालरात्रि - भगवती कालरात्रि का दरबार कालिका गली में है। भगवती का यह रूप भले ही विकराल हो लेकिन यह रूप रिद्धि व सिद्धि प्रदान करने वाला है।  दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन 'सहस्रार' चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है।कहा जाता है कि कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं।नाम से अभिव्यक्त होता है कि मां दुर्गा की यह सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है अर्थात जिनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। नाम से ही जाहिर है कि इनका रूप भयानक है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। अंधकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति हैं कालरात्रि। काल से भी रक्षा करने वाली यह शक्ति है।भगवती के तीन नेत्र हैं। यह तीनों ही नेत्र ब्रह्मांड के समान गोल हैं। इनकी सांसों से अग्नि निकलती रहती है। यह गर्दभ की सवारी करती हैं। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वर मुद्रा भक्तों को वर देती है। दाहिनी ही तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। यानी भक्तों हमेशा निडर, निर्भय रहो।बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग है। इनका रूप भले ही भयंकर हो लेकिन यह सदैव शुभ फल देने वाली मां हैं। इसीलिए यह शुभंकरी कहलाईं। अर्थात इनसे भक्तों को किसी भी प्रकार से भयभीत या आतंकित होने की कतई आवश्यकता नहीं। उनके साक्षात्कार से भक्त पुण्य का भागी बनता है।कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। इसलिए दानव, दैत्य, राक्षस और भूत-प्रेत उनके स्मरण से ही भाग जाते हैं। यह ग्रह बाधाओं को भी दूर करती हैं और अग्नि, जल, जंतु, शत्रु और रात्रि भय दूर हो जाते हैं। इनकी कृपा से भक्त हर तरह के भय से मुक्त हो जाता है।


अष्टम भगवती गौरी - भगवती गौरी यानी माता अन्नपूर्णा का दरबार।ऋषि बिंदु ने काशी खण्ड में विस्तृत वर्णन किया है। कहते है भगवती के आठ परिक्रमा करने से समस्त कार्यो की सिद्धि मिलती है। समस्त संकट का नाश हो जाता है।
श्वेते वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥
कहते है जो स्त्री मां की पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं उनके सुहाग की रक्षा भगवती स्वंय करती हैं।नवरात्रि में आठवें दिन महागौरी शक्ति की पूजा की जाती है। नाम से प्रकट है कि इनका रूप पूर्णतः गौर वर्ण है। इनकी उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। अष्टवर्षा भवेद् गौरी यानी इनकी आयु आठ साल की मानी गई है। इनके सभी आभूषण और वस्त्र सफेद हैं। इसीलिए उन्हें श्वेताम्बरधरा कहा गया है। इनकि चार भुजाएं हैं और वाहन वृषभ है इसीलिए वृषारूढ़ा भी कहा गया है इनको।इनके ऊपर वाला दाहिना हाथ अभय मुद्रा है तथा नीचे वाला हाथ त्रिशूल धारण किया हुआ है। ऊपर वाले बांए हाथ में डमरू धारण कर रखा है और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। इनकी पूरी मुद्रा बहुत शांत है।पति रूप में शिव को प्राप्त करने के लिए महागौरी ने कठोर तपस्या की थी। इसी कारण से इनका शरीर काला पड़ गया लेकिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर कांतिमय बना दिया। उनका रूप गौर वर्ण का हो गया। इसीलिए यह महागौरी कहलाईं।यह अमोघ फलदायिनी हैं और इनकी पूजा से भक्तों के तमाम कल्मष धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं।कहानियों अनुसार एक भूखा सिंह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी ऊमा तपस्या कर रही होती है। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गई, लेकिन वह देवी के तपस्या से उठने का प्रतीक्षा करते हुए वहीं बैठ गया। इस प्रतीक्षा में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आ गई। उन्होने द्याभाव और प्रसन्न्ता से उसे भी अपना वाहन बना लिया क्‍योंकि वह उनकी तपस्या पूरी होने के प्रतीक्षा में स्वंय भी तप कर बैठा।इस दिन भूखे का पेट भरने से भगवती प्रसन्न होती है और सदैव अन्न धन्न की कृपा बनाए रखती है।


नवम सिद्धिदात्री - भगवती सिद्धिदात्री का दरबार सिद्धमाता गली यानी कालभैरव के निकट है। इस मोहल्ले को सिद्धश्वेर मुहल्ला के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है।इनका वाहन सिंह है और यह कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं।नवरात्र में यह अंतिम देवी हैं। हिमाचल के नंदापर्वत पर इनका प्रसिद्ध तीर्थ है।
माना जाता है कि इनकी पूजा करने से बाकी देवीयों कि उपासना भी स्वंय हो जाती है।भगवती देवी सर्व सिद्धियां प्रदान करने वाली देवी हैं। उपासक या भक्त पर इनकी कृपा से कठिन से कठिन कार्य भी आसानी से संभव हो जाते हैं। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आठ सिद्धियां होती हैं। इसलिए इस देवी की सच्चे मन से विधि विधान से उपासना-आराधना करने से यह सभी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं।कहते हैं भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिव जी का आधा शरीर देवी का हुआ था।इसी कारण शिव अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है।विधि-विधान से नौंवे दिन इस देवी की उपासना करने से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है।भगवती के नौ रूपो की पूजा अर्चना सर्व सिद्धि प्रदान करती है। घर के वातावरण को शुद्ध करती है।



न से नैवेध



" या देवी सर्वभूतेषु सिद्धिरूपेण संस्थिता "अथार्त भगवती दुर्गा से सर्व सिद्धि प्राप्ति के लिए जिस प्रकार नौ रूपों की पूजा अर्चना की महिमा है ठीक उसी प्रकार भगवती के नैवेध की। जिसको अर्पित करने से विशेष फल प्राप्त होता है। तो आइए इस नवरात्रि क्यों ना इस नौ अंक वाले न सें नैवेध की महिमा जाने।

भगवती शैलपुत्री को जहां लाल फूल यानी गुलहड़ के पुष्प पसन्द है तो वही नारियल ,सृंगार ,सिंदूर उन्हें अति प्रिय है। भगवती को सफेद चीज हैं बेहद पसंद है। इस दिन सफेद चीजों का भोग लगाया जाता है और अगर यह गाय के घी में बनी हों तो व्यक्ति को रोगों से मुक्ति मिलती है और हर तरह की बीमारी दूर होती है।आरोग्य का आशीर्वाद मिलता हैं। शरीर स्वस्थ रहता है।

भगवती ब्रम्हचारणी को शक्कर अत्यंत प्रिय हैं। मां ब्रह्मचारिणी को मिश्री, चीनी और पंचामृत का भोग लगाएं।इन चीजों का दान करने से लंबी आयु का सौभाग्य भी पाया जा सकता है।सफेद पुष्प अर्पित करे,सफेद रंग के व्यजन चढ़ाए। नारियल अर्पित करे। इससे आयु में वृद्धि होती हैं।

भगवती चद्रघन्टा को खीर बेहद प्रिय हैं। दूध से बना हर आहार भगवती को अति प्रिय है। यदि इस खीर को ब्राम्हणों को दान किया जाए तो सभी दुखो का अंत होता है। ऐसा करने से मां खुश होती हैं और सभी दुखों का नाश करती हैं।

भगवती कुष्मांडा को मालपुआ अत्यंत प्रिय है। यदि इस दिन मालपुआ किसी ब्राह्मण को दान कर तो अत्यंत फलदायी होता है। इससे बुद्धि का विकास होने के साथ-साथ निर्णय क्षमता भी अच्छी हो जाएगी। वायुविकार दोषो से मुक्त हो जाता है।

भगवती स्कंदमाता को केला अत्यंत प्रिय है।इस दिन केले का भोग लगाए। साथ ही ब्राह्मण को दान दे। ऐसा करने से मनुष्य की बुद्धि का विकास होता है।धन्य धान्य व संतान सुख की प्राप्ति होती हैं। केला से शरीर स्वस्थ रहता है।

भगवती कात्यायनी को शहद अति प्रिय है।इस दिन प्रसाद में मधु यानि शहद का प्रयोग करना चाहिए। इसके प्रभाव से साधक सुंदर रूप प्राप्त करता है।सभी संकल्प पूर्ण होते है।

भगवती कालरात्रि को गुड़ का नैवेद्य अर्पित करें उन्हें अत्यंत प्रिय है।
ऐसा करने से व्यक्ति शोकमुक्त होता है। भूत प्रेतों की बाधाएं से दूर रहता है। दुख दूर होता है।


भगवती गौरी को नारियल का भोग लगाएं उन्हें अत्यंत प्रिय है।
नारियल को सिर से घुमाकर बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें तो सभी संकट कट जाएंगे। मान्यता है कि ऐसा करने से आपकी मनोकामना पूर्ण होगी। जिससे सुख समृद्धि आएंगी। साथ ही संतान संबंधी कष्टों से छुटकारा।


भगवती सिद्धिदात्री को तिल प्रिय है। भगवती को विभिन्न प्रकार के अनाजों का भोग भी अत्यंत प्रिय हैं। जैसे- हलवा, चना-पूरी, खीर और पुए और फिर उसे गरीबों को दान करें। इससे जीवन में हर सुख-शांति मिलती है।

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट