सर्चिंग पड़ाव

"मैं....भस्म हूँ ,मैं अवघड़ हूँ, मैं ही हूँ जिससे तुम सब हो,

मैं लीन हूँ,तुम में विलीन हूँ.. हा ,हा मैं ही जिन्दादिली बनारस हूँ। "


नमस्कार,दोस्तो एक बार फिर पुनः आप सभी को इस बारिश की बौछार में नमस्कार। ठंडी - ठंडी हवाएं,बारिश का रोमेंटिक मौसम ....मेरे ख्याल से ऐसे में चप्पल का गंदा हो जाना कौन सोचता है? मुझे पता है आप तो बिल्कुल नही सोचते तो क्यों न चले हम आज के इस बेहतरीन ठंडी ठंडी हवाओं के साथ पहले पड़ाव के यात्रा पे।


वैसे देखा जाए तो हम सब की जिंदगी में न जाने कितने पड़ाव आये गए होंगे , मगर आज के इस बेहतरीन दिलचस्प पड़ाव पर आपको इसलिए अच्छा लगेगा क्योंकि मैं घुम्मकड़ लड़की एक बार फिर ले चल रही हूं,सर्चिंग पड़ाव पे। न अता-न पता बस निकल पड़े है तेरी राह में।


घड़ी में 7 बज रहे है और भींगते मौसम में एक ही धुन इस समय मन मे आ रहा है,आप कहो तो आपको भी सुना ही देती हूँ....न जाने कोई कैसी है ये जिंदगानी,हमारी अधूरी...स्टॉप स्टॉप स्टॉप! हमारी अधूरी नही पूरी है ये कहानी।


खैर बहुत हुई मस्ती हम पहुँच रहे है काशी के उस पड़ाव की ओर जहां भगवान शिव ने शुरुआत की थी "काशी के आगमन" की। पंचकोश से जुड़ी ये केमिस्ट्री काशी जिसके साथ पग पग पर बहुत सारी मिस्ट्री जुड़ी हुई है। लगभग बक-बक में हम लम्ब शम्ब पहुँच चुकें है, काशी के पहले पड़ाव पर जहाँ से काशी की यात्रा शुरू होती है।


मैं बात कर रही हूँ उस मिस्ट्री की जिसमे बहुत सारी कहानियों से जुड़कर बनी है एक केमिस्ट्री। एक ऐसा मन्दिर जहां के बारे मे विभिन्न तरह की बातें। कुछ अटपटी,अनसुलझी,मिस्ट्री इन सबके पीछे एक ही इतिहास " चमत्कार "!


लम्बी दूरी का इंतजार हुआ ख़त्म, दूर से ही दिख रहा था ,आँखों के सामने बड़ा सा पोखरा उस पोखरे में डूबी विभिन्न मिस्ट्री,फटाफट से पहुँची मै वहाँ आँखे दो पल को रोक न सकी खुद को ,उस बौछार से भीगती अलंकृत कहानियों को भीगते हुए बौछारों में चमकते हुए....जिनमे समाहित है विभिन्न कहानियां।


आपको बता दू ये वही पवित्र जगह है जहाँ से शुरुआत होती है काशी के पंचकोशी यात्रा से,कहा जाता है यदि आप यात्रा पर निकले हैं तो इस मंदिर यानी कर्दमेश्वर महादेव के चरण छूते हुए जाए,क्योंकि यही से भगवान शिव ने काशी में पहला चरण यानी पड़ाव शुरू किया था।


एक ऐसा मंदिर जहां प्रभु श्री राम को मिली थी ब्रह्महत्या दोष से मुक्ति।यह मंदिर मलमास में और भी भीड़ से घिर जाती है,दूसरा मशहूर देव दीपावली के दिन...!

काशी यूं ही प्राचीन काल से धर्म नगरी नहीं कही जाती। यहां के मंदिरों और देव विग्रहों का उल्लेख रामायण काल में भी जो उल्लेखनीय है, तो महाभारत काल में भी।       

          पुराणों में मिलता है तो शास्त्रों में भी। यहां भगवान शंकर का वास है तो मां पार्वती कैसे दूर रह सकती हैं। यही वह तीर्थ है जहां देवताओं को भी अपने कर्मो की सजा से मुक्ति के लिए आना पड़ा है। चाहे वह भगवान विष्णु के अवतार प्रभु श्री राम ही क्यों न हों। यही वह नगरी है जहां मनुष्य को देव ऋण से मुक्ति मिलती है। फिर क्यों न हो पूजनीय।


हां! यह काशी नगरी ही है जहां मलमास में पंचक्रोशी यात्रा की जाती है। इस पंचक्रोशी यात्रा की शुरूआत होती है मणिकर्णिका तीर्थ पर गंगा की पावन जलधारा में स्नान व संकल्प के साथ। बाबा विश्वनाथ के आशीर्वाद से। इस यात्रा का पहला पड़ाव है कंदवा स्थित कर्दमेश्वर महादेव। पौराणिक कंदवा पोखरे  में स्नान के पश्चात श्रद्धालु कर्दमेश्वर महादेव का दर्शन कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं।

मान्यता है कि कर्दमेश्वर महादेव के दर्शन मात्र से देव ऋण से मुक्ति मिल जाती है। इतना ही नहीं कथानक यह भी है कि माता सीता हरण के पश्चात जब प्रभु श्री राम ने महापंडित रावण का वध किया तो उन्हें ब्रह्म दोष लगा। ऐसे में जब वह लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे तो गुरु वशिष्ठ के आदेश पर वह सपरिवार काशी आए और कर्दमेश्वर महादेव का दर्शन किया। महादेव की सपत्नीक परिक्रमा की तब जा कर उन्हें ब्रह्म दोष से मुक्ति मिली। मंदिर से जुड़े लोग बताते हैं कि तभी से यहां परिक्रमा की परंपरा चली आ रही है।


मन्दिर के सेवक बताते है कि

कर्दमेश्वर मंदिर पंचरथ प्रकार का मंदिर है। इसका तल छंद योजना में एक चौकोर गर्भगृह, अंतराल और चतुर्भुजाकार अर्द्धमंडप है। मंदिर का निचला भाग अधिष्ठान, मध्य भित्ति क्षेत्र मांडोवर भाग है। इस पर अलंकृत ताखे बने हैं। ऊपरी भाग में नक्काशीदार कंगूरा वरादिका व आमलक आदि सजावटी शिखर है।

मंदिर का पूर्वाभिमुख मुख्य द्वार तीन फीट पांच इंच चौड़ा तथा छह फीट ऊंचा है। इसी गर्भृगृह के मध्य ही कर्दमेश्वर शिवलिंग स्थित है। गर्भगृह के ही उत्तर-पश्चिमी कोने में छह फीट की ऊंचाई पर एक जल स्रोत है। जिससे शिवलिंग पर लगातार जलधारा गिरती रहती है।

यही से शुरुआत हुई उस मिस्ट्री की जिसे मैं सुनने को बेकरार थीं,दरअसल इस मंदिर का निर्माण रातोंरात किया गया था,अरे सच आप भी चौक गए न। इसी तरह मैं भी, दरअसल इस मंदिर का निर्माण विभिन्न मिस्ट्रीयो द्वारा यानी भगवान शिव के मुण्डमाल भूतपिशाचो ने बनाया था। जिसमे सात नारे पोखरे से बंधे हुए है,और उन्ही में से एक नारा मन्दिर के पीछे प्राचीन कूप से जुड़ा है,आपको बता दे यहाँ भी एक हिस्ट्री जुड़ी हुई है ,कहा जाता है की भगवान शिव मन्दिर प्रांगड़ से निकल इसी नारे के सहारे उस कूप में स्नान करते है ,जो भी उस कूप में झाँककर देखता है उसकी समस्त बाधाएं दूर हो जाती हैं।


अब वक़्त था उन सभी परत दर परत इतिहास के

मान्यता को उल्टपल्ट कर तराशने का,मन्दिर के पीछे भगवान शिव की एक अलंकृत मूर्ति है जो कि कुछ कुछ नटराज से मिलती जुलती है उस मूर्ति के ठीक नीचे अंकित है कि यह कोई और नही स्वयं कर्दमेश्वर महादेव ही है।

यही से शुरुआत हुई एक ओर मिस्ट्री कि,कहा जाता है कर्दम ऋषि ने मंदिर में शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा की थी। यही वजह है कि इसे कर्दमेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है। कहा यह भी जाता है कि चंदेल राजाओं ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। कर्दम ऋषि ने यहां तपस्या की थी। उनकी तपस्या से भगवान विष्णु प्रसन्न हुए। इतना ही नही, कर्दम ऋषि जब तपस्या में लीन थे तो किसी बात पर उनकी आंखों में आंसू आ गए और उन आंसुओं ने ही सरोवर का रूप ले लिया। ऐसे में मान्यता है कि सरोवर में जिसका प्रतिबिंब दिख जाए उसकी आयु बढ़ जाती है।


कर्दम ऋषि ने मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की थी इसके कारण ही इसका नाम कर्दमेश्वर महादेव पड़ा।


चंदेल वंशीय राजाओं ने मंदिर का निर्माण कराया था। मान्यता है कि कर्दम ऋषि के बनवाए गए कूप में जिसकी छाया दिख जाती है उसकी उम्र लंबी हो जाती है। कर्दम ऋषि ने यहां कई हजार सालों तक तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने वरदान मांगने को कहा। ऋषि ने पुत्र रत्न की मांग की। ऋषि ने कर्दम कूप का निर्माण कराया और उस पानी में अपनी पत्नी देहुति के साथ स्नान किया। किवदंतियों के अनुसार स्नान के बाद दोनों पति-पत्नी युवा हो गए। दंपती से कपिल मुनी उत्पन्न हुए। कपिल मुनी ने अपने पिता को सांख्य दर्शन का उपदेश दिया। तपस्या के दौरान कर्दम ऋषि की आंखों से आंसू निकले थे और कर्दम तीर्थ बन गया। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि काशी विश्वनाथ मंदिर से पहले ही इस मंदिर की स्थापना हुई थी।


ये वही स्थल है जहाँ कर्दम के पुत्र कर्दमी ने एक शिवलिंग स्थापित कर पांच हजार वर्षों तक अत्यंत कठोर तप किया। शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें प्रत्येक स्रोत का स्वामी घोषित किया। एक अन्य वरदान में शिव ने कहा कि मणिकर्णेश के दक्षिण-पश्चिम स्थित जो लिंग है वह वरुणेश के नाम से जाना जाएगा।काशीखंड तथा तीर्थ विवेचन खंड यह दर्शाते हैं कि वरुणेश लिंग गड़वाल काल का है, जो बाद में कर्दमेश्वर नाम से जाना जाता हैं। आज भी यहां पंचकोशी यात्रा पर लाखों की तादाद में भीड़ उमड़ती है और भगवान शिव को हलवा पूरी का भोग लगा अपनी कामना की साधना करते है पंचकोशी यात्रा से।

बस ,इतनी सी थी आज की यात्रा कैसा लगा,थोड़ा थकान जरूर है मगर चलना और मुझ घुम्मकड़ी के साथ यात्रा करना आपको जरूर पसंद आया होगा।फिर चलेंगे एक नए पड़ाव पर!



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