तर्क-वितर्क की दुनिया मे विचार प्रकट करना जरूरी जहाँ खुल के विचार प्रकट करने का अवसर मिले तो बात होनी चाहिए...बार बार होनी चाहिए। मुझे नहीं लगता कि इसे समाज को कोई आहात पहुँचता है। महिलाओं के विरुद्ध यौन उत्पीड़न, फब्तियां कसने, छेड़खानी, वैश्यावृत्ति,महिलाओं और लड़कियों को ख़रीदना-बेचना आदि जैसे शर्मनाक अत्याचार के खिलाफ महिलाएं आगे नही आती। जिसका मुख्य कारण समाज है। एक ऐसा समाज जो खुद उसी नीतियों पर चलता है मगर दूसरों पर तंज कसते बाज नही आता। जब किसी महिला पर अत्याचार होता है तब यही समाज कुछ नही करता लेकिन पड़ोस की महिला के साथ छेड़छाड़ या यौन उत्पीड़न जैसे मामले सामने आ जाएं तो यही समाज अख़बार से भी तेज खबरों का प्रसारण करने लगता है। महिलाओं पर बढ़ रहे अत्याचार के खिलाफ जब तक वे स्वयं आगे नहीं आएंगी, तब तक उन्हें न्याय के लिए दूसरों पर ही आश्रित रहना पड़ेगा। ऐसे में अत्याचारों पर जल्द लगाम लगाने की बात केवल चर्चाओं तक ही सीमित रह जाएगी। समाचारपत्र,चैनल घटनाओं से पटे पड़े रह जाएंगे। हर वर्ष 25 नवंबर को महिलाओं के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय हिंसा उन्मूलन दिवस के रूप में मनाया जाएगा। जहाँ संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिए महिलाओं के प्रति बढ़ते हिंसा का गंभीर चिंता का विषय है, वही उसे रोकने के लिए जघन्य कदम।लेकिन सवाल तो यह उठता है कि क्या इसे चिंता का विषय बनाया जाना चाहिए या ठोस आधार वाला कानून? आज भी हमारे सामने पीड़ित महिलाओं के उदाहरणों में कमी नही है। समाचार पत्र, समाचार चैनल, वेब चैनल, रेप, दहेज़ के लिए हत्या, भ्रूण हत्या की घटनाओं से भरे पड़े मिलते हैं।इन आंकड़ों में दिन पर दिन बढ़ोतरी हो रही। महिलाओं पे होने वाली हिंसा और शोषण की घटनाएं खत्म होने का नाम नही ले रही। आज हर क्षेत्र में पुरुष के साथ ही महिलाएं भी तमाम चुनौतियों स्वीकार रही है,कई क्षेत्रों में तो महिलाएं पुरुषों से भी आगे हैं। लेकिन दुर्भाग्य... यह है कि समाज के कुछ पुरुष प्रधान मानसिकता वाले यह मानने के लिए तैयार नही कि महिलाएं भी उनकी बराबरी करें।दिन पर दिन सेक्सुअल क्राइम व रेप केस बढ़ रहे। ये तभी था जब महिलाएं चुप थी और ये आज भी है जब महिलाएं आवाज उठा रही।घरेलू हिंसा कि जड़े आज भी हमारे समाज व परिवार को जकड़े हुई हैं। सच्चाई तो यह है कि आज भी महिलाएं अपनी बात रखने में संकुचाती है। वही कुछ महिलाओं को अपनी बात रखने का मौका सोशल साइट्स ने दे दिया है, जिसपर आए दिन बहस का अवसर भी मिलता हैं।फेसबुक जैसी साइट्स पर महिलाएं यौन उत्पीड़न,घरेलूहिंसा,छेड़छाड़,मुद्दों पर जबरदस्त बेबाक बोल रही है। आज तमाम नारी सशक्तिकरण मोर्चा अभियान चलाने वाले महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को रोकने का कार्य कर रहे। सरकार तमाम अभियान चला रही लेकिन सारे मुहिम नक्कारा साबित होता नजर आता है।जब किसी महिला को लाचार बना दिया जाता है उसे विवश कर दिया जाता है। घर के चार दिवारी के पीछे होने वाली हिंसा घरेलू हिंसा ही कहलाती हैं।जहाँ न बोलने की सलाह दी जाती है। कन्या भ्रूण हत्या, नवजात कन्या शिशुओं की हत्या, एसिड अटैक, मानव तस्करी, ऑनर किलिंग व दहेज से संबंधित हिंसा व शोषण। एक ओर जहां यौन हिंसा की घटनाएं सुर्खियां बटोर रही,वहीं एक बड़ी समस्या ‘मानव तस्करी’ की ओर हर साल बिहार, झारखंड व छतीसगढ़,केरल से लाकर हजारों लड़कियां बड़े शहरों में बेच दी जाती हैं या उन्हें देह-व्यापार के दल-दल में धकेल दिया जाता हैं। मुझे गर्व है कि मैंने एक लड़की के रूप में जन्म लिया है। नारी, ममता और त्याग की मूरत जरूर है,लेकिन मेरी माँ ने मुझे हर गलत का विरोध करना सिखाया है। हमें आवाज उठानी चाहिए।चार दिवारी के भीतर हमें अधिकार मांगने की जरूरत नहीं।अत्याचार तभी रूकेंगे जब हम आवाज उठाएंगे। मेरा मानना है कि अब वक़्त तभी बदलेगा जब बेरोजगारी सुधरेगी।तभी समाज का नजरिया व सोच। आज तमाम नारी सशक्तिकरण मोर्चा अभियान तो चलाए जा रहे लेकिन यहाँ भी एक सवाल उठता है कि क्या यह है महिला सशक्तिकरण ? सोचना होगा कि कहीं हम सशक्तिकरण के नाम पर अराजकता तो नही फैला रहें। कहीं हम समाज में प्रचलित रीति-रिवाज और प्रथाओं का उलंघन तो नही कर रहे। हम नारी  स्वतंत्रता का गलत फायदा तो नही उठा रहे। ऐसा इसलिए कह रही क्योंकि सशक्त होने का मतलब ही मन-मर्जी से जीना और सामाजिक रीतियों को तोड़कर अपनी अच्छी-बुरी हर ख्वाहिशों को पूरा करने की कोशिश करना। समय आ गया है हम इसकी परिभाषा को समझें और सशक्त बने। असल मायनों में परिभाषित करें तो हम यह कह सकते हैं कि महिलाओं को अपनी जिंदगी के हर छोटे-बड़े काम का खुद निर्णय लेने की क्षमता होना ही सशक्तिकरण है। खासकर हमारे पारंपरिक ग्रामीण समाज की महिलाएं जो अपनी इच्छा शक्ति, स्वतंत्रता और स्वाभिमान को दबाकर जीने के लिए मजबूर हैं।अब सवाल यही है कि ऐसे समाज में नारी का सशक्त होना कितना आसान है और कितना कठिन? कहने को तो बेटियाँ घर की लक्ष्मी होती है लेकिन घर के बाहर हर जगह वह मानसिक लोगो व हिंसा की शिकार होती है, लांछित होती है। बड़े बुजुर्गों को तो याद ही होगा कि एक समय महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था, न ही कोई रोजगार करने दिया जाता था, उन्हें घर की चार दिवारी में कैद कर दिया जाता था। यह सच है कि अब हालात पहले जैसे नही हैं महिलाएं शिक्षित होने लगीं हैं, हर क्षेत्र में आगे बढऩे लगी हैं, लेकिन फिर भी हालत वहीं की वही है क्या महिलाओं का शोषण बन्द हो गया है? क्या महिलाओं पर होने वाली हिंसा रुक गई है? चर्चा तो होती है लेकिन चिंतन नही होता, प्रयास तो होते हैं लेकिन सुधार नही होता।

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