कुछ अनसुनी सी...बाते !

रात के करीब वही दस - ग्यारह बजे ही होंगे कि हल्की सर्द में किसी ने दरवाजे पे दस्तक दी। खट -खट मैंने अंदर से ही पूछा के हव भईया , रुका खोलत हई।

दरवाजा खोलते ही सामने एक सज्जन पुरुष परिवार समेत खड़े नज़र आए। मैंने पूछा ,कहिये क्या बात है ;आप लोग कौन? इतनी रात मेरे दरवाजे पे दस्तक क्यों? किसके घर आए है आप? मैंने सवालों के जाल बिछा दिए कि सामने खड़े सज्जन ने कहा, मैं किराएदार!

क्या ? किसके ...तभी वो फिर बोले मैं दरअसल कमरे की तलाश में घर घर घूम घूम कर कमरे की तलाश कर रहा हूँ। क्या आपके घर मे कमरा खाली हैं।

जी खाली तो है मगर आप रहने वाले कहा के है,जी मैं सुरेश और मैं इसी अल्हड़ बनारस बाबा की नगरी का ही रहने वाला हूं। मैंने जवाब दिया अच्छा-अच्छा ; तो किराए का मकान क्यों? मालिक जरूरी तो नही की सबके नसीब में घर हो ये बोलते बोलते उसके गले रुंध गए और आंखे भर आईं ,उसके मासूम बच्चे को देख और बाहर सिरहन को देख एक मन मे जवाब दे दिया, रूम तो खाली है मगर दो हजार किराया लगी।

ये तो बहुत ज्यादा है, क्या ज्यादा है अरे भई ये तो सिर्फ रूम का बताया मैंने बिजली का पान सौ अलग। ठीक है। उसके चेहरे का रंग फीका हो गया। मैंने पूछा आप करते क्या है? जी मै डोम महापात्र हू,अंतिम यात्रा की क्रिया को पूर्ण करता हूँ, ये सुन में भक रह गया। मैं पण्डित आदमी घर घर जाकर पूजा पाठ ,शादी विवाह को पूर्ण रूप देने वाला अपने घर मे एक डोम को जगह ...नही नही ये नही हो सकता।

मैंने तुरन्त उसे जवाब दिया दरअसल मैं भूल गया था कि मैंने कमरा तो उठा दिया है,आप कहि ओर देख ले। मुझे छमा करें। उसने मुस्कुरा के अनकहा जवाब दिया ,ओर अपने बच्चे को गोद मे उठा आगे बढ़ गया।

ये सत्य है या असत्य,यह समझना अत्यंत मुश्किल था। मैंने सीढ़ियों से उतर उन करीब बैठे बुजुर्ग बाबा लोग से पूछा, क्या एक डोम को अपने घर मे शरण देने से मज़हब, बदल जाता या डोम के आने से अछूत लग जाता।

             एक और जहाँ लाचारी बेरोजगारी है साहब हर व्यक्ति अपना शहर छोड़ दूसरे शहर में जातपात भूल काम करता है। भला अपना ही शहर उसके सच को सुन यू रुख क्यों मोड़ लिया। क्या एक डोम को शरण देना गलत है,आप ही बताए?

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