पराया धन ? चली पीहर के आँगन

"नन्ही सी कली को क्यों सींच कर किया बड़ा बाबा..;
याद भी नही हे तुम्हें ,
उंगली पकड़ कर तूने चलना सिखाया था न
एक उफ़्फ़ पे तेरी जान निकल जाती थी..;
बाबा मैं तेरी मलिका,
टुकड़ा हूँ तेरी दिल का....एक बार तो दहलीज़ पार करा दो न .....!

एक बेटी का पिता से जो गेहरा रिश्ता जुड़ा होता है,शायद उतना माँ से नही। माँ तो एक अच्छी दोस्त जरूर बन जाती है, मगर हर बेटी का गुमान सर पर चढ़ इसलिए बोलता है क्यों कि  पिता के ओह्दे से उसे शरारत करने का साथ मिलता है। कहते है बेटियां पराई धन होती है। आज यह शब्द मेरे दिल को मानो चिर कर निकल गया हो, आंखों को भिगो,पलकों को नम कर गया।

क्या पराया धन! अरे कैसे अभी तक तो मैं इन इमारतों की हँसी ,हंगामों की क्यारी...और जोशीली डांसर,सुरीली कोयल थी ...न बाबा ,तो आज कैसे पराई हो गयी??

शब्द ऐसा जो मानो रोम रोम को सुना रहा हो ...पराया पराया पराया....????उफ़्फ़ बस ! मैं तो इस घर की हु बस। कहि मैं चक्कर न खा जाऊ। मैं पराई नही नही...मैं तो इस घर की अपनी हूँ,जन्म ली हु इस हवेली में तो आज यह शब्द क्यों???काश!कोई यह कह दे हा..,तुम पराई नही अपनी हो।

पराया धन मानो जैसे नीद चैन ही छीन लिया हो। शायद हर बेटी के भीतर यह सवाल जरूर उठता होगा। अक्सर सुना है बेटियां पराई धन होती है?? तुम्हे एक दिन अपने घर जाना होगा??? क्यों आख़िर???बेटियों का भी एक सवाल है,जिसके घर वो जन्म लेती है,वो उसका घर नही तो जिस घर उसे भेजा जाता है वो अपना कैसा???आप भी जरूर सोचे ओर जवाब दे जरूर से..."जिस घर पराई हो वो पहुँचती है,तो वो उसका कितना????उस घर उसे कितना सुकून???वो तो उसका अपना घर है न फिर वो भी क्यों पराया सा। क्यों???जब इन दोनों तर्क को सोचती हूँ तो लगता है कि एक बेटी का घर तो है ही नही?? आखिर किस गल्ली, मोहल्ला मोड़ को खुद का पहचान बता सके। ये मेरे अपने ,ये मेरा घर???

आज ये स्प्ष्ट हो ही गया कि क्यों महिलाएं सौप देती है बाबुल को निकल पड़ती है उस पराए घर की ओर। बाबुल के उन आंसू लिए पीहर के घर पहुँचती है,इससे स्पष्ट है कि इन दीवारों के भीतर अपने हो कर भी कभी अपने नही होते न ही अपनत्व की भावना। आखिर पता ही लग जाता है कि मैं पराई धन हु।जिसका अहसास सिर्फ एक बेटी को होता है, बेटा तो अपना होता है,वो कभी पराया हो ही नही सकता।

जिस घर वो जन्म लेती है तो लोग उसे लाड़ प्यार से बड़ा करते है,पसन्द न पसन्द का ख्याल रखते है। जिस पीहर का घर अपना अपना कहता है वो घर कितना उसका होता है,न तो उसे कोई लाड़ प्यार देने वाला होता है न ही कोई उसके आंसू का ख्याल रखने वाला होता है। फिर भी अपना न होते हुए भी वो उसे अपना ही लेती है  ,सबकी खुशियों में खुद की खुशियों को दफना देती है। एक बेटी हर चीज एडजस्ट कर लेती है,लेकिन उस अपने वाले घर को भी ये बेटी न पसन्द ही रहती है।

आपके दिल मे ये सवाल क्यों नही आता कि जिस घर जन्म ली उस  घर की बेटी है, तो जिस घर जाना है उस घर बहु कैसे हो गयी। आखिर वो उसका अपना घर है न तो वहाँ भी उसे बेटी का दर्जा क्यों नही????

सबकुछ झेलते हुए भी पीहर के घर को अपना कहती है, लाखो कष्ट के बाद भी जिस घर जन्म ली उसे कभी नही बताती की उसे कितनी तकलीफ है अपने घर।
इसे ये लगता है कि क्या फर्क पड़ता है कि बेटी कोख में मरे या ससुराल में।

आज मैं उन सभी पराए हरकतों को याद करने की कोशिश कर रही जो अब तक मैंने पराए बेटी में देखी हूँ क्या एक बेटी के लिए वही सच है?????आप भी याद कीजिए ,बेटी शादी के मण्डप में या ससुराल जाने मात्र से ही पराई नहीं होती।जब जब वो मायके आती है ,आकर हाथ मुंह धोने के बाद बेसिन के पास टंगे नैपकिन के बजाय अपने बैग के छोटे से रुमाल में ही मुंह पोंछती है तब वह पराई लगती है। एक बेटी जब उसकी शादी हो जाती है और वह मायके वापस आती है,और जब वह रसोई के दरवाजे पर अपरिचित सी ठिठक जाती है तब वह पराई लगती है। जब वह पानी के गिलास के लिए इधर- उधर आँखें घुमाती है तब वह पराई लगती है। जब वह पूछती है वाशिंग मशीन चलाऊँ क्या?? तब वह पराई लगती है। टेबल पर खाना लगने के बाद भी बर्तन खोल कर नहीं देखती तब वह पराई लगती है। जब पैसे गिनते समय अपनी नजरें चुराती है तब वह पराई लगती है।जब बात- बात पर अनावश्यक ठहाके लगाकर खुश होने का नाटक करती है तब वह पराई लगती है। लौटकर जाते समय "अब कब आएगी" के जवाब में "देखो कब आना होता है" यह जवाब देती है तब हमेशा के लिए पराई हो गई सी लगती है।लेकिन गाड़ी में बैठने के बाद जब वह अपने नाम नजरों को छुपाने की कोशिश करती है तब वह पराई लगती है।

लेकिन ये तो कहने और देखने वाली बात होती है असल मे तो  बेटियाँ पराई नहीं होती वो अपने ससुराल के दुखों को छिपाने की कोशिश भी बखूबी कर लेती है।पीहर के अंगना को हर पल इसीलिए याद करती है ,ताकि सब खुश रहे कि हमारी लाडो बेह्द खुश है। लम्बे घूँघट में ही अपने दुःख के घूंटों को पीकर भी अपने दर्द को छिपाकर चुप चाप मुशकुराते हुए चली जाती है।

आज घण्टो बातों के बीच बेटी पराई पर बहस छिड़ गई।  बोले बेटियाँ तो पराया धन होती है साहब …….. 15-20 साल पालन पोषण करो और फिर एक अंजान के हाथो सोप दो ….. उनकी ये बाते सुनकर मुझे भी याद आया की ये शब्द न जाने कितनी बार सुनी हूँ मैं। बात बात पर कभी दादी कहती,तो कभी नानी के मुँह से ये ही शब्द सुनने को मिल जाते,अक्सर माँ भी ये ही बात दोहरा देती है,अरे खाना बनाना सीख लो ,दूसरे घर जाना है, नाक मत कटा देना। इन
शब्द ने आज सच साबित कर ही दिया कि बेटियाँ पराया धन होती है???
 
हमे अपने ही घर में कोई पराया कहे तो हम पर क्या बीतेगी जरा आप भी सोचिए? बेटी के जन्म लेते ही उसे पराए धन की तरह समझा जाता है।पाल पोस कर, पढ़ा लिखा कर फिर एक अच्छा रिश्ते ढूंड कर उसको घर से विदा करना कितना अब सुखद कहूँ या दुखद ,उस वक्त जब बेटी को विदा किया जाता है बड़ा और पुण्य का काम माना जाता है| किंतु बेटी को घर भी नही बिठाया जा सकता, पुरानी रीत जो  चली आ रही है? एक ना एक दिन तो बेटी को विदा करना है, ये तो रीत सबको निभानी होती है चाहे वो ग़रीब हो या अमीर?
 
लेकिन आज के युग मे लोग अभी भी ये जहन में नही लाये की अगर बेटी पराई है तो हमारे थोड़े से कष्ट में तुरन्त आ खड़ी होती है। कभी ये जहन में नही आया कि अगर बेटी पराई है तो क्यों हमारे तबियत का इतना ख्याल रखती है,क्यों फ़ोन पर ही दिन भर में चार पहर ये पूछती है कि दवाई समय पे ली कि नही। कभी ये ख्याल आया की बेटी पराई तो थी ,मगर कभी आपको कष्ट देने की न सोची बल्कि हर वक्त में खड़े होने का हौंसला दी।शायद, नही 99% शादी के बाद भी उसका झुकाव हमेशा अपने माता पिता की ओर ही रहता है,फिर भी उसे लाडो या परी का नाम नही वक्त के साथ उसे "पराया धन" का दर्जा दिया जाता है,जिसे वो उस पहर में भी बखूबी निभाती है,अब जरूर कहूंगी की बेटी पराया धन ही होती है,तभी वो अपने दर्द को खुद के भीतर कैद कर लेती है।
 


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